श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 44 सिरीरागु महला ५ ॥ सभे थोक परापते जे आवै इकु हथि ॥ जनमु पदारथु सफलु है जे सचा सबदु कथि ॥ गुर ते महलु परापते जिसु लिखिआ होवै मथि ॥१॥ मेरे मन एकस सिउ चितु लाइ ॥ एकस बिनु सभ धंधु है सभ मिथिआ मोहु माइ ॥१॥ रहाउ ॥ लख खुसीआ पातिसाहीआ जे सतिगुरु नदरि करेइ ॥ निमख एक हरि नामु देइ मेरा मनु तनु सीतलु होइ ॥ जिस कउ पूरबि लिखिआ तिनि सतिगुर चरन गहे ॥२॥ सफल मूरतु सफला घड़ी जितु सचे नालि पिआरु ॥ दूखु संतापु न लगई जिसु हरि का नामु अधारु ॥ बाह पकड़ि गुरि काढिआ सोई उतरिआ पारि ॥३॥ थानु सुहावा पवितु है जिथै संत सभा ॥ ढोई तिस ही नो मिलै जिनि पूरा गुरू लभा ॥ नानक बधा घरु तहां जिथै मिरतु न जनमु जरा ॥४॥६॥७६॥ {पन्ना 44} उच्चारण: सिरी राग महला ५॥ सभे थोक परापते जे आवै इक हथ॥ जनम पदारथ सफल है जे सचा सबद कथ॥ गुर ते महल परापते जिस लिखिआ होवै मथ॥१॥ मेरे मन, ऐकस सिउ चित लाय॥ ऐकस बिन सभ धंध है सभ मिथिआ मोह माय॥१॥ रहाउ॥ लख खुसीआं पातसाहीआं जे सतिगुर नदर करेय॥ निमख ऐक हरि नाम देय, मेरा मन तन सीतल होय॥ जिस कउ पूरब लिखिआ तिन सतिगुर चरन गहे॥२॥ सफल मूरत, सफला घड़ी, जित सचे नाल पिआर॥ दूख संताप न लगई जिस हरि का नाम अधार॥ बाह पकड़ गुर काढिआ सोई उतरिआ पार॥३॥ थान सुहावा पवित है जिथै संत सभा॥ ढोई तिस ही नो मिलै जिन पूरा गुरू लभा॥ नानक बधा घर तहां जिथै मिरत न जनम जरा॥४॥६॥७६॥ शब्दार्थ: थोक = पदार्थ, चीजें। हथि आवै = हाथ में आ जाए, मिल जाए। जनमु पदारथु = कीमती मानस जनम। सफलु = फल सहित, कामयाब। कथि = कहूं, मैं उचारूं। सचा = सदा स्थिर रहने वाला। महलु = (परमात्मा के चरणों में) निवास। जिसु मथि = जिस (मनुष्य) के माथे पे।1। ऐकस सिउ = सिर्फ एक से। धंधु = जंजाल। मोहु माइ = माया का मोह।1। रहाउ। नदरि = मेहर की निगाह। निमख = निमेष, आंख झपकने जितना समय। देइ = देता है। सीतलु = ठंडा, शांत। पूरबि = पहिले जनम में (किए कर्मों अनुसार)। तिनि = उस (मनुष्य) ने। गहे = पकड़ लिए।2। मूरतु = महूर्त, समय (‘मूरतु’ और ‘मूरति’ में अंतर स्मरणीय है। ‘मूरति’ अर्थात ‘मूर्ती’, ‘स्वरूप’)। जितु = जिस में। लगई = लगे। अधारु = आसरा। गुरि = गुरू ने।3। संत सभा = साध-संगति। ढोई = आसरा। नो = को। जिनि = जिस ने। बधा घरु = पक्का ठिकाना बना लिया। मिरतु = आत्मिक मौत। जनमु = जनम मरण का चक्कर। जरा = बुढ़ापा, आतिमक जीवन को बुढ़ापा।4। सरलार्थ: हे मेरे मन! सिर्फ एक परमात्मा के साथि सुरति जोड़। एक परमात्मा (के प्यार) के बिनां (दुनियां की) सारी (दौड़ भाग) जंजाल बन जाती है। और माया का मोह है भी सारा व्यर्थ।1। रहाउ। अगर, एक परमात्मा मिल जाए, तो (दुनियां के और) सारे पदार्थ मिल जाते हैं (देने वाला जो खुद ही हुआ)। अगर मैं सदा स्थिर रहने वाले प्रभु की सिफत सलाह करता रहूं, तो ये कीमती मानस जनम सफल हो जाए। (पर, उसी मनुष्य को) गुरू की ओर से (परमात्मा के चरणों का) निवास प्राप्त होता है जिसके माथे पर (अच्छे भाग्य) लिखे हुए हों।1। अगर, (मेरा) सतिगुरू (मेरे पे) मेहर की (एक) निगाह करे, तो (मैं समझता हूं कि मुझे) लाखों बादशाहत की खुशियां मिल गई हैं। (क्योंकि, जब गुरू मुझे) आँख के झपकने के जितने समय वास्ते भी परमात्मा का नाम बख्शता है, तो मेरा मन शांत हो जाता है। मेरा शरीर शांत हो जाता है। (मेरी सारी ज्ञानेन्द्रियां विकारों की भड़काहट से हट जाती हैं)। पर उसी मनुष्य ने सतिगुरू के चरण पकड़े हैं (वही मनुष्य सतिगुरू का आसरा लेता है), जिस को पूर्व जन्म का लिखा हुआ (अच्छा लेख) मिलता है (जिसके सौभाग्य जागते हैं)।2। वह समय कामयाब समझो, वह घड़ी सौभाग्यपूर्ण जानो, जिसमें सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के साथ प्यार बने। जिस मनुष्य को परमात्मा के नाम का (जिंदगी का) आसरा मिल जाता है, उस को कोई दुख, कोई कलेश छू नहीं सकता। जिस मनुष्य की गुरू ने बाँह पकड़ के (विकारों में से बाहर) निकाल लिया, वह (संसार समुंद्र में से सही सलामत) पार लांघ गए।3। (ये सारी बरकत है गुरू की, साध-संगति की) जहां साध-संगति जुड़ती है वह जगह सुंदर है पवित्र है। (साध-संगति में आ के) जिसने पूरा गुरू ढूंढ लिया है, उसी को ही (परमात्मा की हजूरी में) आसरा मिलता है। हे नानक! उस मनुष्य ने अपना पक्का ठिकाना उस जगह पे बना लिया, जहां आत्मिक मौत नहीं, जहां जन्म मरण का चक्कर नहीं, जहां आत्मिक जीवन कभी कमजोर नहीं होता।4।6।76। स्रीरागु महला ५ ॥ सोई धिआईऐ जीअड़े सिरि साहां पातिसाहु ॥ तिस ही की करि आस मन जिस का सभसु वेसाहु ॥ सभि सिआणपा छडि कै गुर की चरणी पाहु ॥१॥ मन मेरे सुख सहज सेती जपि नाउ ॥ आठ पहर प्रभु धिआइ तूं गुण गोइंद नित गाउ ॥१॥ रहाउ ॥ तिस की सरनी परु मना जिसु जेवडु अवरु न कोइ ॥ जिसु सिमरत सुखु होइ घणा दुखु दरदु न मूले होइ ॥ सदा सदा करि चाकरी प्रभु साहिबु सचा सोइ ॥२॥ साधसंगति होइ निरमला कटीऐ जम की फास ॥ सुखदाता भै भंजनो तिसु आगै करि अरदासि ॥ मिहर करे जिसु मिहरवानु तां कारजु आवै रासि ॥३॥ बहुतो बहुतु वखाणीऐ ऊचो ऊचा थाउ ॥ वरना चिहना बाहरा कीमति कहि न सकाउ ॥ नानक कउ प्रभ मइआ करि सचु देवहु अपुणा नाउ ॥४॥७॥७७॥ {पन्ना 44} उच्चारण: श्री राग महला ५॥ सोई धिआईअै जीअड़े, सिर साहां पातसाह॥ तिस ही की कर आस मन, जिस का सभस वेसाह॥ सभ सिआणपा छड कै गुर की चरणी पाहु॥१॥ मन मेरे, सुख सहज सेती जप नाउ॥ आठ पहर प्रभु धिआइ तूं, गुण गोइंद नित गाउ॥१॥ रहाउ॥ तिस की सरनी पर मना, जिस जेवड अवर न कोय॥ जिस सिमरत सुख होय घणा, दुख दरद न मूले होय॥ सदा सदा कर चाकरी प्रभ साहिब सचा सोय॥२॥ साध-संगत होय निरमला कटीअै जम की फास॥ सुखदाता भै भंजनो तिस आगै कर अरदास॥ मिहर करे जिस मिहरवान, तां कारज आवै रास॥३॥ बहुतो बहुत वखाणीअै ऊचो ऊचा थाउ॥ वरना चिहना बाहरा कीमत कह न सकाउ॥ नानक कउ, प्रभ, मया कर, सच देवहु अपणा नाउ॥४॥७॥७७॥ शब्दार्थ: सोई = वही। जीअड़े = हे जीवात्मा। सिरि = सिर पे। मन = हे मन! सभसु = सभ जीवों को। वेसाहु = भरोसा। सभि = सारीआं। पाहु = पड़ जाऊं।1। सहज = आत्मिक अडोलता। सेती = साथ।1। रहाउ। परु = पड़ जाऊं। शब्द ‘जिसु’ और ‘जिसका’ के ‘जिस’ में फर्क गौर करने योग्य है। शब्द ‘जिसु तिसु किसु इसु उसु में से ‘ु’ की मात्रा खास खास संबंधकों तथा क्रिया विषोशण ‘ही’ लगने से हट जाती है। देखें गुरबाणी व्याकरण। घणा = बहुत। मूले = बिल्कुल, पूरी तरह से। चाकरी = सेवा, भक्ती। साहिबु = मालिक। सचा = सदा कायम रहने वाला।2। फास = फासी। निरमला = पवित्र जीवन वाला। भै भंजनो = सारे डर नाश करने वाला। आवै रासि = सिरे चढ़ जाना।3। वखाणीअै = कहा जाता है, हर कोई कहता है। कहि न सकाउ = मैं कह नहीं सकता। मइआ = दया। सचु = सदा स्थिर रहने वाला।4। सरलार्थ: हे मेरे मन! आनंद से और आत्मिक अडोलता से परमात्मा का नाम सिमर। आठों पहर प्रभु को सिमरता रह, सदा गोविंद के गुण गाता रह।1। रहाउ। हे मेरी जीवात्मा! उसी प्रभु (के चरणों) का ध्यान धरना चाहिए जो सभ शाहों के ऊपर पातशाह है। हे (मेरे) मन! सिर्फ उस परमात्मा की (सहायता की) आस बना, जिस का सभ जीवों को भरोसा है। (हे मन!) सारी चतुराईयां छोड़ के गुरू के चरण पड़ (गुरू की शरण पड़ने से ही परमात्मा का मिलाप होता है)।1। हे (मेरे) मन! उस परमात्मा की शरण पड़ जिसके बराबर और कोई नहीं है। जिसका नाम सिमरने से बहुत आत्मिक आनंद मिलता है, और कोई भी दुख कलेश बिल्कुल पास नहीं फटकता। (हे मन!) परमात्मा ही सदा कायम रहने वाला मालिक है, सदा उसकी ही सेवा भक्ति करता रह।2। साध-संगति में रहने से (आचरन) पवित्र हो जाता है, और जमों की फासी कटी जाती है। (हे मन! साध-संगति का आसारा ले के) उस परमात्मा के आगे अरदास करता रह, जो सारे सुख देने वाला हैऔर सारे डर सहम का नाश करने वाला है। मेहर करने वाला परमात्मा जिस मनुष्य पे जब मेहर की निगाह करता है, जब उसकी मनुष्य जीवन की भारी जिमेंदारी (पूरी हो) जाती है।3। हर कोई कहता है कि परमात्मा बहुत ऊंचा है, बहुत ऊँचा है, उसका ठिकाना बहुत ऊँचा है। उस प्रभु का कोई खास रंग नहीं है कोई खास रूप-रेखा नहीं है। मैं उसकी कोई कीमत नहीं बता सकता। ( भाव, दुनिया के किसी भी पदार्थ के बदले उसकी प्राप्ति नहीं हो सकती)। हे प्रभु! मेहर कर और मुझे नानक को अपना सदा कायम रहने वाला नाम बख्श (क्यूँकि, जिस को तेरा नाम मिल जाता है उस को तेरा मेल हो जाता है)।4।7।77। |
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धन्यवाद! |