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घट रामायण के मुख्य
और
परमोपयोगी विषय की पद्यावली

।। सोरठा ।।

स्रुति बुन्द सिंध मिलाप,
आप अधर चाढ़ि चाखिया।
भाखा भोर भियान,
भेद भान गुरु स्त्रुति लखा।।


स्रुति=सुरत, चेत, ख्याल; कुछ संतों की वाणियों में संस्कृत नहीं, हिन्दी सुरत का व्यवहार हुआ है, जिसका अर्थ मुख्यतः ‘परा प्रकृति’ अर्थात् चेतन जीव माना जाता और इसको सुरति, स्त्रुति, सुर्त, सुरती, सूरति और श्रुति भी उनकी वाणियों में लिखे गए हैं। भियान=बिहान, प्रभात, प्रातः, प्रात, सुबह। अधर=आकाश; यहाँ पर अन्तराकाश से तात्पर्य है। बुन्द का तात्पर्य यहाँ अंश है। सिंध=समुद्र; तात्पर्यार्थ सर्वेश्वर। भाखा भोर भियान=सुबह से सुबह तक कहा, अर्थात् सदा (हमेशा) कहा। भान=सूर्य। भान गुरु=सूर्य रूप गुरु।


 भावार्थ-सुरत ने सूर्य रूप गुरु का दर्शन युक्ति से किया और अन्तराकाश पर चढ़कर सर्वेश्वर से अपने मिलने के सुख को प्राप्त किया। इस विषय को मैंने सदा कहा।

।। श्रुति सिंध छन्द ।।

सत सुरत समझि सिहार साधौ।
निरखि नित नैनन रहौ।।1।।

धुनि धधक धीर गंभीर मुरली।
मरम मन मारग गहौ।।2।।

सम सील लील अपील पेलै।
खेल खुलि खुलि लखि परै।।3।।

नित नेम प्रेम पियार पिउ कर।
सुरति सजि पल पल भरै।।4।।

धरि गगन डोरि अपोड़ परखै।
पकरि पट पिउ पिउ करै।।5।।

सर साधि सुन्न सुधारि जानौ।
ध्यान धरि जब थिर थुवा।।6।।

जहाँ रूप रेख न भेष काया।
मन न माया तन जुवा।।7।।

आली अंत मूल अतूल कँवला।
फूल फिरि फिरि धरि धसै।।8।।

तुलसी तारऽ निहार सूरति।
सैल सत मत मन बसै।।9।।
 
सत=जो बदले नहीं, सत्य। सिहार=सम्हार। साधौ= अभ्यास करो। धुनि=नाद, आवाज। धधक=लहर, धार। सम=तुल्य, समान। सील=सिला, पत्थर। लील=नील, नीला, अन्धकार। अपील=अछेद्य, जिसे पेला न जा सके। अपोर=बिना सन्धि, बिना जोड़, अमिश्रित। धार=सार शब्द। गगनधार=ज्योति वा शब्द रूप धार। पिउ पिउ करै=वर्णात्मक नाम जपै। पकरि पट पिउ पिउ करै=(प्रथम) पट व परदे को पकड़कर वर्णात्मक नाम जपे। सर=तीर। सर साधि=तीर को सिस्त करके। सर व तीर सुरत को कहा गया है। सुधारि=सँवारि, सही कर। जुवा=जबान, बोल। तार=धार। अतूल=अतुल, अपार। कँवल=मंडल। अतूल कँवला=अपार मंडल, अनाम पद। सैल=शैर, यात्र। (इस छन्द में सिलसिले से साधन का वर्णन नहीं है। ‘निरखि नित नैनन रहौ’, देखने का साधन है। इसका दो प्रकार से अभ्यास किया जा सकता है; पहले स्थूल प्रकार जो किसी देखे हुए रूप के मानस ध्यान से होगा और दूसरे सूक्ष्म प्रकार जो युगल दृष्टि धारों को मिलाकर एकविन्दुता प्राप्त करके होगा। फिर, ‘घुनि धधक धीर गम्भीर मुरली, मरम मन मारग गहौ’ मायावी अनहद शब्द का अभ्यास है फिर, ‘सम सील लील अपील पेलै’, यह देखने के साधन का सूक्ष्म प्रकार, दृष्टियोग से होने योग्य है, इसलिए यह दृष्टि-साधन है। फिर, ‘धरि गगन डोरि अपोर परखै’ यह सार शब्द का अभ्यास है फिर, ‘पकरि पट पिउ पिउ करै’, यह वर्णात्मक नाम का साधन है। और फिर, ‘सर साधि सुन्न सुधारि जानौ’ सुरत रूपी तीर को साधना-सिस्त करना-सीधा करना, दृष्टियोग से होने योग्य है, इसलिए यह दृष्टियोग है।
 

भावार्थ-सुरत सत् है, इसका फैलाव और फँसाव पिण्ड और ब्रह्माण्ड के असत् मण्डलों में हो गया है, इसलिए यह परम प्रभु सर्वेश्वर के सहज स्वरूप की प्राप्ति से विहीन रहकर दुःखद अधोगति का भोग भोग रही है। इस अधोगति के दुःखों से बचाव के लिए सुरत की ऐसी सँभाल करो कि असत् मण्डलों में इसका सिमटाव और इनसे छुटकारा होकर यह परम प्रभु सर्वेश्वर के सहज स्वरूप को प्राप्त करके सारे दुःखों से छूट जाए। सुरत की सँभाल का अभ्यास पहले मानस जप से फिर मानस ध्यान से, फिर दृष्टि-साधन से और फिर सुरत-शब्द-योग से क्रमशः होगा। अपने अन्तर का प्रथम पट कठिन अछेद्य अन्धकार है। दृष्टि-साधन के अभ्यास से सुरत इससे पार हो सकती है। अन्धकार से पार होकर सुरत जब अपने शरीर में ब्रह्म के चमत्कारों को देखेगी; तब परम प्रभु के प्रेम में सदा सराबोर रहेगी। पुनः वह मुरली धुनि (अन्तर की मायावी अनहद धुनि) को युत्तिफ़ से पकड़कर आगे रास्ता चलेगी। ‘गगन डोरी’-अन्तराकाश की ब्रह्मज्योति वा ब्रह्मनाद (मायावी अनहद शब्द) को धरकर सारशब्द को सुरत पहचानेगी। सारशब्द में रत होकर सुरत उस अपरम्पार पद में थिर होगी, जहाँ रूप, रेख, भेष, शरीर, मन और माया नहीं हैं और जो अनिर्वचनीय और मूल पद है। जिसको यह अन्तिम पद खुल जाएगा, उसकी सुरत बारम्बार उसमें धँसती रहेगी। जिस धार को पकड़कर इस अन्तिम पद में जाना हो सकता है, उस धार को परखो, तो उपर्युक्त यात्र के सच्चे विचार में मन डूबा रहेगा। यह कथन तुलसीदास का है।

।। छन्द ।।

हिये नैन सैन सुचैन सुन्दरि।
साजि स्रुति पिउ पै चली ।।1।।

गिरि गवन गोह गुहारि मारग।
चढ़त गढ़ गगना गली ।।2।।

जहाँ ताल तट पट पार प्रीतम।
परसि पद आगे अली ।।3।।

घट घोर सोर सिहार सुनिकै।
सिंध सलिता जस मिली ।।4।।

जब ठाट घाट वैराट कीना।
मीन जल कँवला कली ।।5।।

आली अंस सिंध सिहार अपना।
खलक लखि सुपना छली ।।6।।

अब सार पार सम्हारि सूरति।
समझि जग जुग जुग जली ।।7।।

गुरु ज्ञान ध्यान प्रमान पद बिन।
भटकि तुलसी भौ भिली ।।8।।


 हिये नैन सैन=अन्तर की आँख का इशारा, दृष्टि-साधन। सुचैन=अति सुख। साजि स्त्रुति=सुरत को सँभाल कर, पिण्ड में सुरत को केन्द्रित करके। गोह गुहारि=गुहा, कन्दरा, खोह। गिरि गवन=पहाड़ पर जाना, ऊँचे चढ़ना, पिण्ड से ब्रह्माण्ड की ओर वा स्थूल से सूक्ष्म की ओर वा अन्धकार से प्रकाश की ओर चढ़ना। गोह गुहारि मारग=कन्दरा (के अन्धकार) में का पथ। कन्दरा वा खोह जो ऊँचा स्थान और पहाड़ में होता है। पिण्ड के नीचेवाले चक्रों के ऊपर, खोपड़ी के भीतर नयनाकाश में के पथ को, ‘गोह गुहारि मारग’ माना गया है। ताल=तालाब, मानसरोवर। प्रमान=सत्य। प्रमान पद=सत्यलोक। भौ भिली=संसार में भटकी।

भावार्थ-परम प्रभु सर्वेश्वर से मिलने को चलने में सुरत को केन्द्रित करना होता है। दृष्टि-साधन से सुरत अत्यन्त सुखपूर्वक केन्द्रित होती है। केन्द्रित की हुई सुरत अन्धकारमय नयनाकाश से मार्ग धरकर संकीर्ण मार्ग से ब्रह्माण्ड में चढ़ती है, फिर वह आगे अनहद ध्वनि को सुनती हुई अर्थात् सुरत-शब्द-योग द्वारा मानसरोवर के पार प्रीतम से इस भाँति मिलती है, जिस भाँति नदी समुद्र से जा मिलती है। सब रचना नाशवान है और इसमें जीव सदा जलता रहता है। इस रचना से सुरत को फेरकर प्रभु की ओर करना चाहिए। तुलसी साहब कहते हैं कि गुरु के ज्ञान और ध्यान बिना सुरत संसार में भटकती रहती है और उसे सत्यलोक (मोक्षधाम) नहीं मिलता है।

।। छन्द ।।

आली अधर धार निहार निजकै।
निकरि सिखर चढ़ावहीं ।।1।।

जहाँ गगन गंगा सुरति जमुना ।
जतन धार बहावहीं ।।2।।

जहाँ पदम प्रेम प्रयाग सुरसरि ।
धुर गुरु गति गावहीं ।।3।।

जहँ संत आस बिलास बेनी ।
विमल अजब अन्हावहीं ।।4।।

कृत कुमती काग सुभाग कलिमल ।
कर्म धोइ बहावहीं ।।5।।

हिये हेरि हरष निहार घर कौ ।
पार हंस कहावहीं ।।6।।

मिलि तूल मूल अतूल स्वामी ।
धाम अविचल बसि रही ।।7।।

आली आदि अन्त विचारि पद कौ ।
तुलसी तब पिउ की भई ।।8।।


अधर धार=अन्तराकाश की ज्योति और शब्द रूप धारें। निकरि=निकलकर। सिखर=पहाड़ की चोटी। गगन गंगा=अन्तराकाश में बहनेवाली चेतन धार। पदम=कँवल, मण्डल। प्रयाग=तीर्थराज (ॐ ब्रह्म पद)। सुर=ध्वनि। सरि=नदी। सुरसरि=ध्वनि धार। धुर=आरम्भ, आदि। धुर गुरु=आदि गुरु, परम प्रभु सर्वेश्वर। बेनी=त्रिवेणी, त्रिकुटी, ॐ ब्रह्म पद। पार हंस=संसार से पार हुआ हंस, मुत्तफ़ पुरुष। तूल=बड़ा। तूल मूल अतूल स्वामी=परम पुरुष सर्वेश्वर।


भावार्थ-अन्तराकाश में चेतन धार रूप गंगा, ॐ ब्रह्म पद रूप प्रयाग और सत, रज, तम; तीन गुणों की तीन धाराओं का संगम रूप त्रिवेणी हैं। इस त्रिवेणी में आनन्द प्राप्त करने की आशा संत करते हैं और वे इसमें अचरजी स्नान करके शुभाशुभ कर्म और मलों से छूट जाते हैं। उपर्युत्तफ़ गंगा में अपनी सुरत रूप यमुना को यत्न से मिलाकर वे चलते हैं और अनाहत नाद की धार को प्राप्त कर आदि गुरु परम प्रभु सर्वेश्वर की महिमा को वे गाते हैं। अन्तराकाश की चेतनधार को पकड़कर चलने से इस तीर्थ की यात्र की जा सकती है और दृष्टियोग से चेतन धार पकड़ी जाती है। इस पार को ग्रहण कर सुरत पिण्ड से निकल ब्रह्माण्ड के उपर्युक्त प्रयाग में जाती है। इस तीर्थ-राज में स्नान कर संत परम प्रभु सर्वेश्वर को पाते हैं और जीवन मुक्त दशा को प्राप्त करते हैं।

।। छन्द ।।

आली पार पलंग बिछाइ पलपल ।
ललक पिउ सुख पावहीं ।।1।।

खुश खेल मेल मिलाप पिउकर ।
पकरि कण्ठ लगावहीं ।।2।।

रस रीति जीति जनाइ आसिक ।
इस्क रस बस ले रही ।।3।।

पति पुरुष सेज सँवार सजनी ।
अजब अली सुख का कही ।।4।।

मुख वैन कहनि न सैन आवै ।
चैन चौज चिन्हावहीं ।।5।।

आली सन्त अन्त अतन्त जानै ।
बूझि समझ सुनावहीं ।।6।।

जिन चीन्हि तन मन सुरत साधी ।
भवन भीतर लखि लई ।।7।।

जिन गाइ शब्द सुनाइ साखी ।
भेद भाषा भिनि भई ।।8।।

आली अलख अण्ड न खलक खण्ड ।
पलक पट घट घट कही ।।9।।

तुलसी तोल बोल अबोल बानी ।
बूझि लखि बिरले लई ।।10।।


आसिक=आशिक, प्रेमी। इस्क=इश्क, प्रेम। रस=मजा। बस=पूरा। पलंग बिछाई=सुरत जमा कर। पुरुष सेज साँवर=परम पुरुष सर्वेश्वर के बिछावन को सजाओ, हृदय को अमल और अचंचल बनाओ। चौज=मौज। अतन्त=अत्यन्त। अन्त अतन्त=अत्यन्त अन्त, पिण्ड का अन्त, ब्रह्माण्ड का अन्त और प्रकृति मंडल का अन्त; इन सब अन्तों का जिसे प्रत्यक्ष ज्ञान हो, वह अत्यन्त अन्त तक जानता है। अथवा अंधकार, प्रकाश और शब्द; इन तीनों के अन्तों को जो जानता है, वह अत्यन्त अन्त तक का जानकार है।  अलख=जो देखा न जा सके। खलक=संसार। खण्ड=टुकड़ा। तोल=तौल, भारीपने या महत्त्व का प्रत्यक्ष ज्ञान। अबोल बानी=अनाहत नाद। ललक=चढ़कर, धावा मारकर। 


भावार्थ-जिसे परम प्रभु सर्वेश्वर से मिलकर परम सुख पाना हो, उसे चाहिए कि अंधकार के पार में चढ़कर सुरत जमावे। अपने हृदय को अमल और अचंचल करे। परम प्रभु का अत्यन्त प्रेमी भक्त बने। प्रेमी भक्त प्रभु से मिलने का स्वाद पाता है और उसको अलौकिक सुख, चैन की मौज प्राप्त होती है, जो सैन बैन से बतलाया नहीं जा सकता है। संत इसको अत्यन्त अन्त तक जानते हैं और इसके विषय में सुनाते हैं। जो अपने तन, मन और सुरत को साधेगा, वह उपर्युत्तफ़ मौज को अपने में पावेगा। पर जो इस विषय के शब्द साखियों को केवल गाया ही करेगा, इसका अभ्यास नहीं करेगा, वह उपर्युत्तफ़ मौज से अलग ही रहेगा। घट-घट के पलक पट के भीतर अनाश, अलख और अनाहत नाद की ध्वनि के महत्त्व का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। तुलसी साहब कहते हैं कि इसका अनुभव ज्ञान बिरले ही को होता है।

।। छन्द ।।

आली देख लेख लखाव मधुकर ।
भरम भौ भटकत रही ।।1।।

दिन तीनि तन संग साथ जानौ ।
अंत आनन्द फिरि नहीं ।।2।।

जग हीन सार असार सखी री ।
भ्रमत विधि बस भौ मही ।।3।।

धन धाम काम न कनक काया ।
मुलक माया लै बही ।।4।।

येही समझि बूझि विचारि मन में ।
निरखि तन सुपना सही ।।5।।

जम जाल जवर कराल सजनी ।
काल कुल करतब लई ।।6।।

सब तीरथ बरत आचार आली री ।
कर्म बस बंधन भई ।।7।।

तुलसी तनक तरक विचारि तन मन ।
संत सतगुरु अस कही ।।8।।

मधुकर=भ्रमर, भँवरा, भौंरा। फूलों के रस के लिए भौंरा सदा चंचल रहता है, इसी तरह मन भी विषय रस के लिए चंचल रहता है। यहाँ भौंरा से तात्पर्य है मन। तरक=तर्क, न्याय और युत्तिफ़युत्तफ़ अनुमान। भरम भौ=धोखा वा भ्रम रूप संसार।

।। छन्द ।।

सखी सीख सुनि गुनि गाँठि बाँधौ ।
ठाट ठट सतसंग करै ।।1।।

जब रंग संग अपंग आली री ।
अंग सत मत मन मरै ।।2।।

मन मीन दिल जब दीन देखै ।
चीन्ह मधुकर सिर धरै ।।3।।

आली डगर मिलि जब सुरति सरजू ।
कँवल दल चल पद परै ।।4।।

थिर थोब ठुमुकि टिकाव नैना ।
नीर थीर जिमि थम थीरै ।।5।।

यहि भाँति साथ सुधारि मन कौ ।
पलक गिरि गगना भरै ।।6।।

लखि द्वार दिढ़ दरवार दरसै ।
परसि पद पुनि पिउ धरै ।।7।।

गुरु गैल मेल मिलाप तुलसी ।
मन्त्र विषधर बस करै ।।8।।


सीख=शिक्षा, उपदेश, नसीहत। गुनि=विचार कर। गाँठि बाँधौ=गिरह में बाँध लो, याद रखो। ठाट=तैयारी, धूमधाम, शान। ठट=ठठ, ठट्ठ मण्डली, समूह। ठाट ठट=मण्डली सजाकर, वा धूमधाम से, वा बहुत जनता एकत्र कर, वा शान के साथ। अपंग=लँगड़ा। जब रंग संग अपंग आलीरी, अंग सत मत मन मरै=जब सत्संग का रंग मन पर लगेगा अर्थात् जब मन पर सत्संग का विशेष प्रभाव होगा, वह लँगड़ा हो जाएगा अर्थात् वह कम चलायमान वा कम चंचल होगा, उसमें सत् विचार का अंग स्थिर होगा, तब वह मरेगा, अर्थात् मन संकल्प-विकल्प को छोड़ देगा। मन मीन दिल जब दीन देखै, चीन्ह मधुकर सिर धरै=मछली रूपी मन (मछली की तरह उलटी धार पर चलनेवाला मन) तब होता है, जब वह दीन (अहंकार हीन) बनता है। तब वह विषय पुष्प का भ्रमर मन मस्तक को धर लेता है। अर्थात् मन की बैठक मस्तक के अन्दर शिवनेत्र में है, जहाँ से उसने फैलकर विषय भोग के हेतु इन्द्रियों की घाटों को पकड़ लिया है। जब मन दीन होगा और चेतन की उलटी धारा पर चलेगा, तब इन्द्रियों की घाटों को छोड़ सकेगा और अपनी बैठक की ओर सिमिट वहाँ अटक सिर अर्थात् मस्तक को धर लेगा। दल=समूह। थोव=थोप, थाँभकर वा थाम्हकर। ठुमुकि=युक्ति से चलना। थम=थम्ह। थिरै=स्थिर होय। पलक गिरि=पलक को बन्द करके। गैल=गली, संकीर्ण मार्ग। विषधर=साँप, मन।

भावार्थ-उपदेशों को सुन और विचारकर उन्हें याद रखना चाहिए। बहुत जनता को एकत्र कर मण्डली बना धूमधाम से शान के साथ सत्संग करना चाहिए। सत्संग का रंग मन घर चढ़ाकर उनकी चंचलता को कमा कर, उसमें सद्विचार का अंग घुसाकर और उसे चेतन की उलटी धार पर चढ़ाकर और इन्द्रियों की घाटों से उसकी धारों को छुड़ा और उसे समेटकर अपने मस्तक में धारण करना चाहिए अर्थात मन की सब धारों को समेट उसकी बैठक अर्थात् उसके केन्द्र में केन्द्रित करना चाहिए। इसके लिए आँखें बन्द करके दृष्टि को यक्ति से थिर थाम्हकर ठहरा, गगन को उससे भरना होगा, तब सुरत को आगे का रास्ता मिलेगा। वह कमलों में चलकर परम पुरुष सर्वेश्वर के सच्चे दरबार के द्वार को देखेगी और वह उस प्रभु के धाम में पहुँच जाएगी। यह गुरु का सूक्ष्म मार्ग है, इसके द्वारा प्रभु से मेल-मिलाप होता है और यह एक ऐसा मंत्र है कि इसके द्वारा मन रूपी साँप बस में आता है। यह तुलसी साहब का कथन है।

।। छन्द ।।

जब बल बिकल दिल देखि बिरहिन ।
गुरु मिलन मारग दई ॥१॥

सखी गगन गुरु पद पार सतगुरु ।
सुरति अंश जो आवई ॥२॥

सुरति अंस जो जीव घर गुरु ।
गगन बस कंजा मई ॥३॥

आली गगन धार सवार आई ।
ऐनि बस गो गुन रही ॥४॥

सखी ऐन सूरति पैन पावै ।
नील चढ़ि निर्मल भई ॥५॥

जब दीप सीप सुधार सजकै ।
पछिम पट पद में गई ॥६॥

गुरु गगन कंज मिलाप करिकै ।
ताल तज सुनि धुनि लई ।।७।।

सुनि शब्द से लखि शब्द न्यारा ।
प्रालबद जद क्या कही ॥८॥

जेहि पार सतगुरु धाम सजनी ।
सुरति सजि भजि मिलि रही ॥९॥

जस अलल अंड अकार डारै ।
उलटि घर अपने गई ॥१०॥

यहि भाँति सतगरु साथ भेटै ।
कर अली आनन्द लाई ॥११॥

दख दाव कर्म निवास निस दिन ।
धाम पिया दरसत बही ॥१२॥

सतगुरु दया दिल दीन तुलसी ।
लखत भै निरभ भई ॥१३॥

ऐनि=एन, ऐना, आँख। गो=इन्द्री। गुन=गुण (रज, तम, सत् )। पैन=नाली, सूक्ष्म मार्ग। सीप=सीयी, जिसमें मोती फरता है, सितुआ। पछिम पट=अन्धकार के ऊपर का परदा; ज्योति पट। ताल=झाँझ, मजीरा। ताल तज सुनि धनि लई=झांझ, मजीरा आदि के बिना ही इनकी ध्वनि सुनी। सुनि=सुनी। सुनि शब्द सुने हुए शब्द। सुनि शब्दे से लखि शब्द न्यारा=सुने हुए शब्दों से भिन्न प्रकार के शब्द को परख कर। प्रत्लाबद-प्रालब्ध, भाग्य। जद=तब। अलल- एक चिड़िया है, जो खोते (घोंसले) में नहीं रहती है, आकाश में केवल पवन के सहारे रहती है। आकाश ही में अंडा छोड़ती है। नीचे गिरते-गिरते आकाश में अंडा पुष्ट होता है और फूटता है। आकाश में और नीचे गिरते-गिरते अंडे से निकले हुए बच्चे की आँखें खुलती हैं और उसे पर होता है। जब वह बच्चा धरती के पास पहंचता है, तब उसे याद आ जाती है कि यहाँ मेरा घर नहीं है। तब वह फिर आकाश में ऊपर को उड़कर अपने माता-पिता के पास पहंचता है।

भावार्थ-परम प्रभु सर्वेश्वर से मिलने के लिए तुलसी साहब जब विरह से विशेष विकल हए, तब उन्हें गुरु ने रास्ता बताया और उन्हें जानने में आया कि ॐ ब्रह्म पद के पार में सतगरु का धाम है, जहां से सर्वेश्वर का अंश (सुरत) आती है। वहाँ आती हई सुरत ॐ ब्रह्म पद में उतरी और फिर वहाँ से भी नीचे चेतन धार पर सवार होती हुई आई और आँख में बस कर रज, तम, सत, गणों और इन्द्रियों के अधीन हो गई है। अब यदि सुरत को आँख के स्थान से ही नल (या सूक्ष्म मार्ग) मिले तो वह प्रथम अन्य कार पर चढ़ कर निर्मल होगी। फिर दीपक ज्योति, सीपी की तरह चमक की ज्योति या ज्योति मंडल में प्रवेश कर ॐ ब्रह्म पद में पहुँच और झाँझ, मजीरा आदि ताल के बिना ही ताल ध्वनि को सनेगी। फिर सनी हई सब ध्वनियों से न्यारी ध्वनि को पाकर सुरत अत्यन्त सौभाग्यवती होगी कि वह अपने भाग्य का वर्णन नहीं कर सकेगी। अब इसके पार में सतगुरु का धाम (मोक्ष पद) है, जहाँ सरत सजकर पहुंचेगी। जैसे अलल पक्षी (आकाश) में अंडा डालती है और उस अंडे का बच्चा लौटकर अपना घर चला जाता है, इसी तरह सुरत सतगुरु से जा मिलेगी और परमानन्द प्राप्त कर लेगी। तुलसी साहब कहते हैं कि कर्मों के बन्धन के दःख दाव जो दिन-रात लगे रहते हैं, प्रभु के धाम के दर्शन से दूर हो जाएंगे और सुरत का भय भाग जाएगा।

।। छन्द ।।
गुरु, इष्ट, संत और सत्संग

॥चौपाई॥  

सतगुरु अगम सिन्धु सुखदाई।
जिन सत राह रीति दरसाई॥१॥

जो कुछ करै करै सोइ सन्ता।
सन्त बिना नहिं पावै पन्था॥२॥

मोरे इष्ट सन्त स्रुति सारा।
सतगुरु सन्त परम पद पारा॥३॥

सतगुरु सत्त पुरुष अविनासी।
राह दीन लखि काटी फाँसी।।४।।

सतगुरु साहब सन्त लखावै।
तब घट भीतर परचा पावै॥५॥

सतगुरु कृपा सिन्धु कोइ जागै।
आवागमन भर्म भौ भाग॥६॥

सतगुरु से कुछ बूझ न पाई।
बिष रस राह फिरै भौ माँई।।७।।

सन्त कृपा सुर्त सैल लखावै।
मन चढ़ि गगन ब्रह्म को पावै॥८॥

सत्संग करे ब्रह्म जब जानै।
बिन सतगुरु नहिं सुर्त पहिचान।।९।।

भौ जल नौका सत्संग भाई।
सुरति चदै भौ पारे जाइ ॥१०॥

सतगुरु पद परसै उर नैना।
लख लख परै सन्त की सैना॥११॥

चीन्है सन्त तो होइ उबारा।
नहीं तो बूडै भौ जल धारा॥१२॥

बिन मुरशद पावै नहिं घाटा।
ये सब समझ बूझ ले बाटा॥१३॥

अगम पंथ सतगुरु से पावै।
सतगुरु मिलै तो राह बतावै।।१४।।

सतगुरु मिलै कहै दरसाई।
बिना सन्त नहिं बूझ बुझाई॥१५॥

और इष्ट नहिं जानै भाई।
सतगुरु चरन गहै चितलाई॥१६॥

॥सोरठा॥
बिन सतगुरु उपदेश, सुर नर मुनि नहिं निस्तरै।
ब्रह्मा बिश्नु महेश और सबन को को गिनै॥


।। छन्द ।।


॥ दोहा॥
सत्संगति सतद्वार में,
जानत सन्त सुजान।

मुकुर मनो दुरवीन में,
निरखि चढ़े असमान।।

मुरशद-गुरु। मुकुर ऐना, दर्पण, (तीसरा तिल, शिव नेत्र )। मनोमानो, मान लो।

'साधु और सदा लौ लगाए रहने का यत्न'

॥चौपाई॥

तिल परमाने लगे कपाटा।
मकर तार जहाँ जीव का बाटा॥१॥

इतना भेद जानै जब कोई।
तुलसी दास साध है सोई॥२॥

निस दिन रहै सुरति लौ लाई।
पल पल राखौ तिल ठहराई॥३॥


मकर तार=मकड़े का तार। वह महीन तार वा तागा जिसको मकड़ा अपने अन्दर से निकालकर किसी ऊँचाई के किसी वस्तु से सम्बन्ध करके अपने अन्दर से उसे निकालते हुए उसके सहारे अधर में भूलते हुए वह नीचे को उतरता है। और फिर उसी तार को समेटते हुए उसी के सहारे वह वहाँ चढ़ जाता है, जहाँ से वह नीचे उतरता है। सरत ब्रह्माण्ड के ऊपर से ब्रह्माण्ड में और वहाँ से पिण्ड में अपनी ही चेतन धार पर उतर आई है, पुनः इसी धार के सहारे चढ़ाई कर अपने आदि स्थान को लौट सकती है। सुरत के इस निज धार को मकर तार कहा जाता है। तिल का प्रत्यक्ष दर्शन प्राप्त होने पर उसका मानसध्यान सब कामों के संग सदा करते रहना पल पल तिल ठहराना है।

॥ जीव का निबेरा, चौपाई॥

तुलसी निरख देखि निज नैना।

कोइ कोइ संत परखिहैं बैना॥१॥


जो कोई सन्त अगम गति गाई।

चरन टेकि पुनि महूँ सुनाई॥२॥


अब जीवन का कहूँ निबेरा।

जासे मिटै भरम बस बेरा॥३॥


जब या मुक्ति जीव की होई ।

मुक्ति जानि सतगुरु पद सेई*॥४॥


सतगुरु संत कंज में बासा ।

सुरत लाइ जो चढ़े अकाशा॥५॥


स्याम कंज लीला गिरि सोई।

तिल परिमान जान जन कोई॥६॥


छिन छिन मन को तहाँ लगावै ।

एक पलक छूटन नहिं पावै॥७॥


त्रुति ठहरानी रहे अकासा ।

तिल खिरकी में निस दिन वासा॥८॥


गगन द्वार दीसै एक तारा ।

अनहद नाद सुनै झनकारा॥९॥


अनहद सनै गने नहिं भाई ।

सरति ठीक ठहर जब जाई॥१०॥


चूवै अमृत पिवै अघाई ।

पीवत पीवत मन छकि जाई॥११॥


सूरति साध संध ठहराई ।

तब मन थिरता सूरति पाई॥१२॥


सूरति ठहरिद्वार जिन पकरा ।

मन अपंग होइ मानो जकरा॥१३॥


चमकै बीज गगन के माईं ।

जबहिं उजास पास रहै छाई॥१४॥


जस जस सुरति सरकि सतद्वारा।

तस तस बढ़त जात उजियारा॥१५॥


सेत श्याम स्रुति सैल समानी ।

झरि झरि चूवै कृप से पानी॥१६॥


मन इस्थर अस अमी अघाना।

तत्त पाँच रंग विधि बखाना।।१७।।


स्याही सुरख सफेदी होई।

जरद जाति जंगाली सोई॥१८॥


तल्ली ताल तरंग बखानी ।

मोहन मुरली बजै सुहानी॥१९॥


मुरली नाद साध मन सोवा ।

विष रस बादि विधी सब खोवा।।२०॥


खिरकी तिल भरि सुरति समाई ।

मन तत देखि रहै टकलाई ॥२१॥


जब उजास घट भीतर आवा ।

तत्त तेज और जोति दिखावा ॥२२॥


जैसे मंदिर दीपक बारा ।

ऐसे जोति होत उजियारा ॥२३॥


जोति उजास फाटि पुनि गयऊ ।

अंदर तेज चंद अस भयऊ ॥२४॥  


देखै तत सोइ मन है भाई ।

पुनि चन्दा देखै घट माईं ॥२५॥


चन्द्र उजास तेज भया भाई ।

फूला चन्द चाँदनी छाई ॥२६॥


सूरति देखि रहै ठहराई ।

ज्यों उजियास बढ़त जिमि जाई ॥२७॥


ज्यों ज्यों सुरति चढ़ी चलि गयऊ ।

सेता ठौर ठाम लखि लयऊ ॥२८॥


देख सैल ब्रह्माण्ड समाई ।

तारा अनेक अकाश दिखाई ॥२९॥


महि और गगन देखि उर माईं ।

और अनेकन बात दिखाई ॥३०॥


कछु कछु दिवस सैल अस कीना ।

ऊगा भान तेज का चीना ॥३१॥


तारा चन्द तेज मिटि गयऊ ।

जिमि मध्यान भान घट भयऊ ॥३२॥


ज्यों दोपहर गगन रवि छाई ।

ता से उजास भया घट माई ॥३३॥


ताके मधि में निरखि निहारा ।

घट में देखा अगम पसारा ॥३४॥


सात दीप पिरथी नौ खंडा ।

गगन अकाश सकल ब्रह्मण्डा ॥३५॥


समुन्दर सात प्रयाग पद बेनी ।

गंगा जमुना सरसुती भैनी ॥३६॥


औरे नदी अठारा गण्डा ।

ये सब निरखि परा ब्रह्माण्डा ॥३७॥


चारो खानि जीव निज होई ।

अंडज पिंडज उष्मज सोई ॥३८॥


अस्थावर चर अचर दिखाई ।

ये सब देखा घट के माई ॥३९॥


भिनि भिनि जीवन कर बिस्तारा ।

चारि लाख चौरासी धारा ॥४०॥


और पहार नार बहुतेरा ।

जो ब्रह्माण्ड में जीव बसेरा ॥४१॥


कछु कछु दिवस सैल अस कीना ।

तीनि लोक भीतर में चीना ॥४२॥


जो जग घट घट माहिं समाना ।

घट घट जग जीव माहिं जहाना ॥४३॥


ऐसे कइ दिन बीति सिराने ।

एक दिवस गये अधर ठिकाने ॥४४॥


परदा दूसर फोड़ि उड़ानी ।

सुरत सोहागिन भई अगमानी ॥४५॥


शब्द सिन्ध में जाइ सिरानी ।

अगम द्वार खिड़की नियरानी ॥४६॥


चढ़ि गइ सूरति अगम ठिकाना ।

हिय लखि नैना पुरुष पुराना ।।४७॥


तामें पैठि अधर में देखा ।

रोम रोम ब्रह्मण्ड का लेखा ॥४८॥


अंड अनेक अन्त कछु नाहीं ।

पिंड ब्रह्मण्ड देखि हिय माँहीं ॥४९॥


जहँ सतगुरु पूरन पद वासी ।

पदम माहिं सतलोक निवासी ॥५०॥  


सेत बरन वह सेतइ साईं।

वहँ सन्तन ने सुरति समाई ।।५१॥


सत्तहि लोक अलोक सुहेला ।

जहँ वह सुरति करै निज केला ॥५२॥


सूरति सन्त करै कोइ सैला ।

चौथा पद सत नाम दुहेला ॥५३॥


परदा तीसर फोड़ि समानी ।

पिंड ब्रह्मण्ड नहीं अस्थानी ॥५४॥


जहाँ वो अगम अगाधि अघाई ।

जहाँ की सतगति सन्तन पाई ॥५५॥


महुँ उन लार लार लरकाई ।

उन संग टहल करन नित जाई ॥५६॥


महुँ पुनि चीन्ह लीन्ह वह धामा ।

बरनि न जाइ अगमपुर ठामा ॥५७॥


नि:नामी वह स्वामी अनामी ।

तुलसी सुरति तहाँ धरि थामी ॥५८॥


जो कोई पूछ तेहि कर लेखा ।

कस कस भाखों रूप न रेखा ॥५९॥


तुलसी नैन सैन हिय हेरा ।

सन्त बिना नहिं होइ निबेरा ॥६०॥


निज नैना देखा हिय आँखी ।

जस जस तुलसी कह कह भाखी ।६१॥


॥सोरठा ।।

पिंड माहिं ब्रह्मड ।

ताहि पार पद तेहि लखा।


तुलसी तेहि की लार।

खोलि तीनि पट भिनी भई।


निबेरा निबेड़ा-छुटकारा। बेरा=बेलासमय। सेई-सेवा करे। सतगुरु पद सेई=( इस तुक के नीचे में सतगुरु संत कहकर वर्णन कर दिया गया है इसलिए) संत सतगुरु यानी शरीरधारी सतगुरु के चरणों की सेवा करे। सेवा प्रत्यक्ष में और मानस ध्यान में। 'मोरे ईष्ट संत तूतिसारा। सतगुरु संत परम पद पारा॥ सतगुरु पद परसै उर नैना। लख लख परै सन्त की सैना। और इष्ट नहिं जानै भाई। सतगुरु चरन है चित लाई।' घट रामायण के इन चौपाइयों से यह बात अच्छी तरह विदित होती है कि घट रामायण सतगुरु की ऊपर कथित दोनों प्रकार की सेवाओं की विधि बतलाती है। श्याम कंज-अन्धकार मण्डल ( अन्तर का पहिला मण्डल वा परदा जो आँखों को बन्द करने से प्रत्येक को देखने में आता है ) लीलागिरि-कौतुक का पहाड़ वा ऊँचा स्थान; दोनों आँखों के दोनों तिलों के बीच अन्तर में है, जो तीसरा तिल वा शिवनेत्र कहलाता है। यहाँ पर सुरत की चढ़ाई होने से ब्रह्म की विचित्र-विचित्र ब्रह्मण्डी लीलाएँ देखने में आती हैं। इसीलिए इसको लीलागिरि कहते हैं। परिमान-अन्दाज-नाप। चौथी, पाँचवीं और छठी चौपाइयों का भावार्थ-नयनाकाश में स्थित अन्धकार मण्डल में तिल के अन्दाज का एक ऊँचा स्थान ब्रह्म की लीलाओं को देखने का है। जो सुरत को नीचे से समेटकर इस मण्डल (श्याम कंज) में ला बासा करते हैं और आकाश में चढ़ते हैं.वह सतगरु संत हैं. इनसे मोक्ष विषय में जानकर ममक्ष इनके चरणों की सेवा करे। सेवा में यह भी ख्याल रखना चाहिए कि 'आज्ञा सम न सुसाहिब सेवा।'। मतलब यह कि आज्ञा में बरतना सर्वोत्तम सेवा है। प्रत्यक्ष और मानस ध्यान, दोनों प्रकार की सेवाओं के आगे फिर क्या करना होगा, सो आगे की चौपाइयों में आज्ञा की हुई है। जो सच्चा सतगुरु होगा, वह शिष्य को उस अनुकूल अवश्य आगे बढ़ने की आज्ञा देगा ( बाबा देवी साहब की छापी घट रामायण में, 'श्रुति इहरानी' पर वे० वे० प्रेस में छपी हई और हाथरस की हस्तलिखित घट रामायण में 'श्रति ठहरानी' है।) पर वे० वे० प्रेस में छपी हुई और हाथरस की हस्तलिखित घट रामायण में 'श्रुति ठहरानी' है।) सातवीं और दसवीं चौपाइयों तक का भावार्थ-जहाँ लीलागिरि हैं, तहाँ सदा मन लगावे। आकाश में ठहरी हुई सुरत का बासा तिल खिड़की में सदा रहेगा तो गगन द्वार में एक तारा दरसेगा और अनहद नाद का झनकार सुनने में आवेगा। इस अनहद नाद को सब गुनावन छोड़कर सुने तो सुरत ठीक ठहर जाएगी। अमृत-चेतन। छकि जाई-तृप्त वा सन्तुष्ट होगा। साध-साधि-साध कर, सिस्त करको संध-संधि; जोड़; पिण्ड ब्रह्माण्ड का मेल, अर्ध-ऊर्ध्व का मेल, अन्ध कार प्रकाश का मेल। जकरा-जकड़ा-कस के बंधा। बीज-बिजली। उजास-प्रकाश। सेत-स्याम-बग भौंरा, उजला काला, अन्धकार प्रकाश। कूप-ब्रह्माण्ड। पानी-चेतन। तल्ली-तली-नीचे, अन्दर। ताल-झाँझ, मजीरा। तरंग-लहर। ताल तरंग-झाँझ और मजीरा की ध्वनि की तरंग। मोहन-मोहित करनेवाली। सुहानी-मन भावनी। वादि-अनावश्यक, फजूल। टकलाई-टक लगाकर-एक दृष्टि से देखते रहकर। उजियास-प्रकाश सेता-उजला, प्रकाश। मध्यान-दोपहर दिन। नार-नाला-पतली धारा। दुहेला-मुश्किल। लार-साथ। तीन पट-(१) अन्धकार (२) प्रकाश (३) शब्द।


* बाबा देबी साहब की छापी हुई घट रामायण में 'सेई की जगह ‘जोई' है; पर हाथरस की हस्तलिखित और वेलवेडियर प्रेस में छपी घटरामायण में 'सेई' है।


॥आरती ॥

आरति संग सतगुरु के कीजै ।
अन्तर जोत होत लख लीजै॥१॥

पाँच तत्त्व तन अग्नि जराई।
दीपक चास प्रकाश करीजै॥२॥

गगन-थाल रवि-शशि फल-फूला।
मूल कपूर कलश धर दीजै॥३।।

अच्छत नभ तारे मुक्ताहल।
पोहप-माल हिय हार गुहीजै ।।४।।

सेत पान मिष्टान्न मिठाई ।
चन्दन धूप दीप सब चीजै ।।५।।

झलक झाँझ मन मीन मँजीरा ।
मधुर मधुर धुनि मृदंग सुनीजै॥६॥

सर्व सुगन्ध उड़ि चली अकाशा ।
मधुकर कमल केलि धुनि धीजै॥७॥

निर्मल जोत जरत घट माहीं ।
देखत दृष्टि दोष सब छीजै।॥ ८ ॥

अधर धार अमृत बहि आवै।
सतमत-द्वार अमर रस भीजै॥९॥

पी-पी होय सुरत मतवाली।
चढ़ि-चढ़ि उमगि अमीरस रीझै॥१०॥

कोट भान छवि तेज उजाली।
अलख पार लखि लाग लगीजै ॥११॥

छिन-छिन सुरत अधर पर राखै।
गुरु-परसाद अगम रस पीजै ।।१२॥

दमकत कड़क-कड़क गुरुधामा।
उलटि अलल तुलसी तन तीजै ॥१३॥

भावार्थ-सतगुरु के संग में प्रभु परमात्मा की आरती कीजिए और अन्तर में ज्योति होती है, उसे देख लीजिए ॥१॥ तन के पाँच तत्त्वों की अग्नि को जला, दीपक बार कर प्रकाश* कर लीजिए। इसका तात्पर्य यह है कि ध्यान-अभ्यास करके पाँचो तत्त्वों के भिन्न-भिन्न रंगों के प्रकाशों को देखिए और इसके अनन्तर दीपक-टेम की ज्योति का भी दर्शन कीजिए ॥२॥** शून्य के थाल में सूर्य* और चन्द्र* फल-फूल हैं और इस पूजा के मूल या आरम्भ में कपूर अर्थात् श्वेत विन्दु का कलश स्थापन मूल कीजिए॥३॥ अन्तराकाश में दर्शित सब तारे* रूप मोतियों* का अच्छत ( अरवा चावल, जिसका नैवैद्य पूजा में चढ़ाते हैं।) है। और ऊपर कथित फूलों का हार गूंथकर हृदय में पहन लीजिए अर्थात् अपने अन्दर में उन फूलों का सप्रेम दर्शन कीजिए।।४।। पान, मिठाई, मिष्ठान, चन्दन, धूप और दीप; सब-के-सब उजले यानी प्रकाश हैं।॥५॥ झलक अर्थात् प्रकाश में झाँझ, मजीरा और मृदंग की मीठी ध्वनियों को मीन-मन से अर्थात् भाठा से सिरा*** की ओर चढ़नेवाले मन से सुनिए॥६॥ शरीर में बिखरी हुई सुरत की सब धार-रूप सुगन्ध आकाश में उठती हुई चलती है और उस मण्डल में वह भ्रमर-सदृश खेलती हुई अनहद ध्वनि से सन्तुष्ट होती ॥७॥ शरीर के अन्दर पवित्र ज्योति जरती है। दृष्टि से दर्शन होते ही सब दोष नाश को प्राप्त होते हैं।॥८॥ अधर (आकाश) की धारा में अमृत बहकर आता है, उस धारा में सत्य-धर्म के द्वार पर आरती करनेवाला अभ्यासी अमर-रस में भींजता है॥९॥ उस अमर-रस को पीकर सुरत मस्त होती है और विशेष-से-विशेष ऊपर चढ़ाई करके और उल्लसित होकर अमृत-रस में रीझती है॥१०॥ करोड़ों सूर्य के सदृश प्रकाशमान सौन्दर्य प्रकाशित हैं, अलख के$ पार# को लख कर सम्बन्ध लगा लीजिए॥११॥ सुरत को क्षण-क्षण अधर पर रखे तो गरु प्रसाद से अगम रस पीवै॥१२॥ तुलसी साहब कहते हैं कि गुरुधाम (परम पुरुष-पद) चमकता हुआ। ध्वनित होता है। हे सुरत! तुम अलल पक्षी@ की भाँति उलटकर अर्थात् बहिर्मख से अन्तर्मुख होकर तीनों शरीरों को छोड़ दे॥१३।।

* आदौ तारकवदृश्यते। ततो वज्रदर्पणम्। तत् उपरि पूर्णचन्द्र मण्डलम्। ततो नवरत्न प्रभा मण्डलम्। ततो मध्याह्नार्क मण्डलम्। ततो वह्नि शिखामण्डलम् क्रमादृश्यते। तदा पश्चिमाभिमुख प्रकाशः स्फटिक धूम्रबिन्दुनादकला नक्षत्रदीप नेत्रसुवर्णनवरत्नादि प्रभा दृश्यते।
-मण्डल ब्रह्मणोपनिषद्, ब्राह्मणं २
**मन इस्थिर अस अमी अधाना। तत्त पाँच रंग विधी बखाना॥ स्याही सुरख सफेदी होई। जरद जाति जंगाली सोई॥
-घट रामायण 'जैसे मन्दिर दीपक बारा। ऐसे ज्योति होत उजियारा॥' -घट रामायण
*** नीचे से ऊपर-स्थूल से सूक्ष्म।
• सार शब्द।
# शब्दातीत पद।
$ जस अलख अंड अकार डारै, उलटि घर अपने गई। यहि भाँति सतगुरु साथ भेटै, कर अली आनन्द लई ॥
-घट रामायण
@ अलल चिड़ियाँ आकाश में रहती है। वह घोंसला नहीं बनाती है। आकाश में ही अंडा छोड़ती है। आकाश से नीचे गिरते-गिरते अंडा फटता है और बच्चा हो जाता है। उसमें पर जम जाता है और उसकी आँखें भी खुल जाती हैं। जमीन के नजदीक आते-आते उसे ज्ञान होता है कि यह मेरे रहने का स्थान नहीं है। वह लौटकर अपनी माता के पास चला जाता है।
-अनुराग-सागर , कबीर-पंथ का एक ग्रंथ।

घट रामायण के साधन का खुलासा

(अभ्यासी गुरु से भेद जानकर अभ्यास करना चाहिए। केवल पुस्तक पढ़कर अपने ही अन्दाज से अभ्यास करना हानिकर है।)

(१) सत्संग करना
(२) वर्णात्मक शब्द का जप करना (मानस जप सब प्रकार के जपों से उत्तम है)
(३) सतगुरु के रूप का मानस ध्यान करना
(४) दृष्टि-योग द्वारा एकविन्दुता प्राप्त करनी और
(५) सुरत-शब्द-योग का अभ्यास करना। सरत-शब्द-योग में प्रथम मायावी ध्वनियों का अभ्यास करना, फिर 'शब्द सिन्ध' वा सारशब्द में सुरत को लगाना। स्थान हाथरस, तुलसी साहब के मन्दिर के महन्थों की शुभ नामावली (१) तुलसी साहब (साहब जी) (२) सूर स्वामी (३) दरसन साहब (४) मथुरा दास साहब (५) ध्यान दास साहब ( अभी बिराज रहे हैं)

जय गुरु!