तुलसी निरख देखि निज नैना।
कोइ कोइ संत परखिहैं बैना॥१॥
जो कोई सन्त अगम गति गाई।
चरन टेकि पुनि महूँ सुनाई॥२॥
अब जीवन का कहूँ निबेरा।
जासे मिटै भरम बस बेरा॥३॥
जब या मुक्ति जीव की होई ।
मुक्ति जानि सतगुरु पद सेई*॥४॥
सतगुरु संत कंज में बासा ।
सुरत लाइ जो चढ़े अकाशा॥५॥
स्याम कंज लीला गिरि सोई।
तिल परिमान जान जन कोई॥६॥
छिन छिन मन को तहाँ लगावै ।
एक पलक छूटन नहिं पावै॥७॥
त्रुति ठहरानी रहे अकासा ।
तिल खिरकी में निस दिन वासा॥८॥
गगन द्वार दीसै एक तारा ।
अनहद नाद सुनै झनकारा॥९॥
अनहद सनै गने नहिं भाई ।
सरति ठीक ठहर जब जाई॥१०॥
चूवै अमृत पिवै अघाई ।
पीवत पीवत मन छकि जाई॥११॥
सूरति साध संध ठहराई ।
तब मन थिरता सूरति पाई॥१२॥
सूरति ठहरिद्वार जिन पकरा ।
मन अपंग होइ मानो जकरा॥१३॥
चमकै बीज गगन के माईं ।
जबहिं उजास पास रहै छाई॥१४॥
जस जस सुरति सरकि सतद्वारा।
तस तस बढ़त जात उजियारा॥१५॥
सेत श्याम स्रुति सैल समानी ।
झरि झरि चूवै कृप से पानी॥१६॥
मन इस्थर अस अमी अघाना।
तत्त पाँच रंग विधि बखाना।।१७।।
स्याही सुरख सफेदी होई।
जरद जाति जंगाली सोई॥१८॥
तल्ली ताल तरंग बखानी ।
मोहन मुरली बजै सुहानी॥१९॥
मुरली नाद साध मन सोवा ।
विष रस बादि विधी सब खोवा।।२०॥
खिरकी तिल भरि सुरति समाई ।
मन तत देखि रहै टकलाई ॥२१॥
जब उजास घट भीतर आवा ।
तत्त तेज और जोति दिखावा ॥२२॥
जैसे मंदिर दीपक बारा ।
ऐसे जोति होत उजियारा ॥२३॥
जोति उजास फाटि पुनि गयऊ ।
अंदर तेज चंद अस भयऊ ॥२४॥
देखै तत सोइ मन है भाई ।
पुनि चन्दा देखै घट माईं ॥२५॥
चन्द्र उजास तेज भया भाई ।
फूला चन्द चाँदनी छाई ॥२६॥
सूरति देखि रहै ठहराई ।
ज्यों उजियास बढ़त जिमि जाई ॥२७॥
ज्यों ज्यों सुरति चढ़ी चलि गयऊ ।
सेता ठौर ठाम लखि लयऊ ॥२८॥
देख सैल ब्रह्माण्ड समाई ।
तारा अनेक अकाश दिखाई ॥२९॥
महि और गगन देखि उर माईं ।
और अनेकन बात दिखाई ॥३०॥
कछु कछु दिवस सैल अस कीना ।
ऊगा भान तेज का चीना ॥३१॥
तारा चन्द तेज मिटि गयऊ ।
जिमि मध्यान भान घट भयऊ ॥३२॥
ज्यों दोपहर गगन रवि छाई ।
ता से उजास भया घट माई ॥३३॥
ताके मधि में निरखि निहारा ।
घट में देखा अगम पसारा ॥३४॥
सात दीप पिरथी नौ खंडा ।
गगन अकाश सकल ब्रह्मण्डा ॥३५॥
समुन्दर सात प्रयाग पद बेनी ।
गंगा जमुना सरसुती भैनी ॥३६॥
औरे नदी अठारा गण्डा ।
ये सब निरखि परा ब्रह्माण्डा ॥३७॥
चारो खानि जीव निज होई ।
अंडज पिंडज उष्मज सोई ॥३८॥
अस्थावर चर अचर दिखाई ।
ये सब देखा घट के माई ॥३९॥
भिनि भिनि जीवन कर बिस्तारा ।
चारि लाख चौरासी धारा ॥४०॥
और पहार नार बहुतेरा ।
जो ब्रह्माण्ड में जीव बसेरा ॥४१॥
कछु कछु दिवस सैल अस कीना ।
तीनि लोक भीतर में चीना ॥४२॥
जो जग घट घट माहिं समाना ।
घट घट जग जीव माहिं जहाना ॥४३॥
ऐसे कइ दिन बीति सिराने ।
एक दिवस गये अधर ठिकाने ॥४४॥
परदा दूसर फोड़ि उड़ानी ।
सुरत सोहागिन भई अगमानी ॥४५॥
शब्द सिन्ध में जाइ सिरानी ।
अगम द्वार खिड़की नियरानी ॥४६॥
चढ़ि गइ सूरति अगम ठिकाना ।
हिय लखि नैना पुरुष पुराना ।।४७॥
तामें पैठि अधर में देखा ।
रोम रोम ब्रह्मण्ड का लेखा ॥४८॥
अंड अनेक अन्त कछु नाहीं ।
पिंड ब्रह्मण्ड देखि हिय माँहीं ॥४९॥
जहँ सतगुरु पूरन पद वासी ।
पदम माहिं सतलोक निवासी ॥५०॥
सेत बरन वह सेतइ साईं।
वहँ सन्तन ने सुरति समाई ।।५१॥
सत्तहि लोक अलोक सुहेला ।
जहँ वह सुरति करै निज केला ॥५२॥
सूरति सन्त करै कोइ सैला ।
चौथा पद सत नाम दुहेला ॥५३॥
परदा तीसर फोड़ि समानी ।
पिंड ब्रह्मण्ड नहीं अस्थानी ॥५४॥
जहाँ वो अगम अगाधि अघाई ।
जहाँ की सतगति सन्तन पाई ॥५५॥
महुँ उन लार लार लरकाई ।
उन संग टहल करन नित जाई ॥५६॥
महुँ पुनि चीन्ह लीन्ह वह धामा ।
बरनि न जाइ अगमपुर ठामा ॥५७॥
नि:नामी वह स्वामी अनामी ।
तुलसी सुरति तहाँ धरि थामी ॥५८॥
जो कोई पूछ तेहि कर लेखा ।
कस कस भाखों रूप न रेखा ॥५९॥
तुलसी नैन सैन हिय हेरा ।
सन्त बिना नहिं होइ निबेरा ॥६०॥
निज नैना देखा हिय आँखी ।
जस जस तुलसी कह कह भाखी ।६१॥
॥सोरठा ।।
पिंड माहिं ब्रह्मड ।
ताहि पार पद तेहि लखा।
तुलसी तेहि की लार।
खोलि तीनि पट भिनी भई।
निबेरा निबेड़ा-छुटकारा। बेरा=बेलासमय। सेई-सेवा करे। सतगुरु पद सेई=( इस तुक के नीचे में सतगुरु संत कहकर वर्णन कर दिया गया है इसलिए) संत सतगुरु यानी शरीरधारी सतगुरु के चरणों की सेवा करे। सेवा प्रत्यक्ष में और मानस ध्यान में। 'मोरे ईष्ट संत तूतिसारा। सतगुरु संत परम पद पारा॥ सतगुरु पद परसै उर नैना। लख लख परै सन्त की सैना। और इष्ट नहिं जानै भाई। सतगुरु चरन है चित लाई।' घट रामायण के इन चौपाइयों से यह बात अच्छी तरह विदित होती है कि घट रामायण सतगुरु की ऊपर कथित दोनों प्रकार की सेवाओं की विधि बतलाती है। श्याम कंज-अन्धकार मण्डल ( अन्तर का पहिला मण्डल वा परदा जो आँखों को बन्द करने से प्रत्येक को देखने में आता है ) लीलागिरि-कौतुक का पहाड़ वा ऊँचा स्थान; दोनों आँखों के दोनों तिलों के बीच अन्तर में है, जो तीसरा तिल वा शिवनेत्र कहलाता है। यहाँ पर सुरत की चढ़ाई होने से ब्रह्म की विचित्र-विचित्र ब्रह्मण्डी लीलाएँ देखने में आती हैं। इसीलिए इसको लीलागिरि कहते हैं। परिमान-अन्दाज-नाप। चौथी, पाँचवीं और छठी चौपाइयों का भावार्थ-नयनाकाश में स्थित अन्धकार मण्डल में तिल के अन्दाज का एक ऊँचा स्थान ब्रह्म की लीलाओं को देखने का है। जो सुरत को नीचे से समेटकर इस मण्डल (श्याम कंज) में ला बासा करते हैं और आकाश में चढ़ते हैं.वह सतगरु संत हैं. इनसे मोक्ष विषय में जानकर ममक्ष इनके चरणों की सेवा करे। सेवा में यह भी ख्याल रखना चाहिए कि 'आज्ञा सम न सुसाहिब सेवा।'। मतलब यह कि आज्ञा में बरतना सर्वोत्तम सेवा है। प्रत्यक्ष और मानस ध्यान, दोनों प्रकार की सेवाओं के आगे फिर क्या करना होगा, सो आगे की चौपाइयों में आज्ञा की हुई है। जो सच्चा सतगुरु होगा, वह शिष्य को उस अनुकूल अवश्य आगे बढ़ने की आज्ञा देगा ( बाबा देवी साहब की छापी घट रामायण में, 'श्रुति इहरानी' पर वे० वे० प्रेस में छपी हई और हाथरस की हस्तलिखित घट रामायण में 'श्रति ठहरानी' है।) पर वे० वे० प्रेस में छपी हुई और हाथरस की हस्तलिखित घट रामायण में 'श्रुति ठहरानी' है।) सातवीं और दसवीं चौपाइयों तक का भावार्थ-जहाँ लीलागिरि हैं, तहाँ सदा मन लगावे। आकाश में ठहरी हुई सुरत का बासा तिल खिड़की में सदा रहेगा तो गगन द्वार में एक तारा दरसेगा और अनहद नाद का झनकार सुनने में आवेगा। इस अनहद नाद को सब गुनावन छोड़कर सुने तो सुरत ठीक ठहर जाएगी। अमृत-चेतन। छकि जाई-तृप्त वा सन्तुष्ट होगा। साध-साधि-साध कर, सिस्त करको संध-संधि; जोड़; पिण्ड ब्रह्माण्ड का मेल, अर्ध-ऊर्ध्व का मेल, अन्ध कार प्रकाश का मेल। जकरा-जकड़ा-कस के बंधा। बीज-बिजली। उजास-प्रकाश। सेत-स्याम-बग भौंरा, उजला काला, अन्धकार प्रकाश। कूप-ब्रह्माण्ड। पानी-चेतन। तल्ली-तली-नीचे, अन्दर। ताल-झाँझ, मजीरा। तरंग-लहर। ताल तरंग-झाँझ और मजीरा की ध्वनि की तरंग। मोहन-मोहित करनेवाली। सुहानी-मन भावनी। वादि-अनावश्यक, फजूल। टकलाई-टक लगाकर-एक दृष्टि से देखते रहकर। उजियास-प्रकाश सेता-उजला, प्रकाश। मध्यान-दोपहर दिन। नार-नाला-पतली धारा। दुहेला-मुश्किल। लार-साथ। तीन पट-(१) अन्धकार (२) प्रकाश (३) शब्द।