अब इस बात का विचार किया जाता है कि घट रामायण को किसने और कब बनायी । घट रामायण कर्ता ने इसके बनने का संवत् १६१८ लिखा है। परन्तु मैं सिद्ध कर चुका हूँ कि यह पुस्तक गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज कृत रामायण (जो संवत् १६३१ में बनी है ) के पीछे बनी है। इसलिये मैं निःसन्देह रूप से मानता हूँ कि यह पुस्तक संवत् १६१८ के पीछे बनी है और इस कारण से कि इसमें अपनी बातों की पुष्टि के हेतु दरिया साहब की चर्चा है और उनका शब्द प्रमाण-रूप में दिया गया है, यह संवत् १६८० अर्थात् गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज के परलोक गमन के बहुत पीछे बनी है। जिसमें यह गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज की बनायी हुई और रामचरितमानस के पहले की बनी हई जानी जाए । इसलिये इसके बनने का संवत् १६१८ घट रामायण के बनानेवाले ने झूठ ही लिख दिया है । गुरु नानक साहब कब हए, नव नाथ, चौरासी सिद्ध और गोरखनाथजी कब हुए, पलक राम नानक पंथी के संवाद में तो घट रामायण के कर्त्ता ने स्वयं इसका साल संवत् के निर्णय से समय की बड़ी जांच-पड़ताल की है और उपर्युक्त महात्माओं को गुरु नानक साहब के समकालीन नहों ठहर सकने के कारण उनका उन महात्माओं से सदेह संवाद नहीं माना है; पर यह अपने ग्रन्थ घट रामायण बनने के संवत् बताने की पारी में लोगों की आंखों में धूल झोंकने की इच्छा से लिख डाला कि, चौ०—" संवत् सोलह से अठारा । घटरामायण कीन पसारा ॥" न मालूम कि इसको दोनों दरिया साहबान की जानकारी थी या नहीं थी । इसे यह भी सोह (चेत ) न रहा कि जब इसमें सात कांड रामायण की नवधा भक्ति और कागभुशुण्डि की बातों की चर्चा करता हूँ, तब यह सात काण्ड रामायण (रामचरितमानस) से प्रथम बनी हुई नहीं साबित हो सकेगी। वेलवेडियर प्रेस के मालिक और सन्तवाणी पुस्तक माला के सम्पादक राय बहादुर बाबू बालेश्वर प्रसाद साहब इलाहाबादीजी ने तो इसके बनने के संवत् की चर्चा ही नहीं की है। परन्तु वे अपने प्रेस में अपनी छापी हुई घट रामायण के प्रथम भाग के आरम्भ में अपनी लिखित 'तुलसी साहब (हाथरस वाले) की जीवनी' में लिखते हैं कि "तुलसी साहब ने निःसन्देह घट रामायण के अन्त में फरमाया है कि पूर्व जन्म में आप ही गोसाईं तुलसीदास के चोले में थे, तब घटरामायण को रचा, परन्तु चारों ओर से पण्डितों, भेषों और सर्व मतवालों का भारी विरोध देखकर उस ग्रंथ को गुप्त कर दिया और दूसरी सगुण रामायण उसकी जगह समयानुसार बना दी। इससे यह नतीजा साफ तौर पर निकलता है कि घट रामायण को तुलसी साहब ने जब दूसरा चोला (अनुमानतः १४० वर्ष पीछे ) धारण किया, तब प्रगट किया, न कि पहिले चोले से।" उपर्युक्त सम्पादक महोदयजी के उपर्युक्त लेख से ज्ञात होता है कि ये घट रामायण को गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज (सात काण्ड रामायण के कर्त्ता) की बनाई हुई मानते हैं। परन्तु यह मानना इनकी भूल है; क्योंकि इसका कारण मैं पहले व्यक्त कर आया हूँ। ग्रंथ को गुप्त करने के बाद फिर उसे किसने प्रकट किया, सो घट रामायण में कहीं लिखा हुआ नहीं है। उसमें यह भी कहीं नहीं लिखा है कि मैं अपने पहले जन्म की कथा कहता हूँ, जिससे यह जाना जाये कि इस बात के कहनेवाले ने अपने पहले जन्म में घट रामायण बनायी थी। घट रामायण के अन्त में लिखा है कि "अब कहूँ अन्त समय अस्थाना। देह तजी बिधि कहूँ बिधाना ॥ दो०-संवत सोलह सै असी, नदी बरन के तीर । सावन सुक्ला सप्तमी, तुलसी तजा शरीर ।। इस बयान पर यदि कोई यह अनुमान करे कि कोई ऐसा नहीं कह सकता कि मैं अमुक मिति को मर गया, इसलिये उपर्युक्त बयान से यही जानना चाहिये कि मौत की बात बतलानेवाले ने अपने पहले जन्म की मौत की बात कही है। इस अनुमान पर एक बात यह कही जा सकती है कि यदि ग्रंथकर्त्ता को अपने पहले जन्म की कथा कहनी थी, तो उसे चाहिये था कि वह इस बात को साफ तरह से कथा के आरम्भ में ही कहता कि मैं अपने पहले जन्म की कथा कहता हूँ । और यदि भारम्भ में उसने ऐसा नहीं बतलाया, तो ग्रंथ में कहीं भी ऐसा साफ तरह से बतलाता । दूसरी बात यह है कि यदि उसने पहले जन्म में घट रामायण बनायी, तो उसमें उस जन्म में उसने यह नहीं लिखा होगा कि मैंने सावन शुक्ला सप्तमी संवत् १६८० को शरीर छोड़ा । यह उसने अपने दूसरे जन्म में ही लिखा होगा। तब यह भी सम्भव है कि घट रामायण को उसने अपने दूसरे जन्म में और बढ़ाया होगा । इसलिये कुछ लोगों का ख्याल है कि घट रामायण में जहाँ भक्ति का वर्णन समाप्त होता है, वहीं ग्रन्थ की समाप्ति है । उसके बाद ग्रन्थ के कथित अंश के चार गुने से भी अधिक वर्णन जो और उसमें शामिल है, जिसमें हाल काशीजी का, जीवन चरित्र गोसाईंजी महाराज का और सब संवाद लिखे हैं, उसमें पीछे से जोड़ा गया है । अतएव वर्त्तमान घट रामायण का यह वर्णित बृहदांश क्षेपक है और प्रथम वर्णित स्वल्पांश ही मूल है, जो संवत् १६१८ का बना हुआ और गोस्वामी तुलसीदासजी कृत है। परन्तु यह विचार भी माना नहीं जा सकता; क्योंकि घट रामायण बनने का संवत १६१८ और कर्त्ता गो० तुलसी दाम जी महाराज होने के जिन सब खण्डन करनेवाले कारणों का मैं पहले वर्णन कर चुका हूँ, वे सब कारण कथित क्षेपकांश के प्रथम भी घट रामायण में पाये जाते हैं । इसलिये वेलवेडियर प्रेस के उक्त स्वामी महोदयजी का यह विश्वास कि घट रामायण के कर्त्ता गो० तुलसीदास जी हैं, भूल है । तीसरी बात यह है कि भूल ही के कारण रामचरितमानस और दरिया साहब की साक्षी दे दी है । इसलिये उपर्युक्त प्रकार से गो० तुलसीदासजी का स्वर्गवास होना लिखा जानकर यह मान लेना कि स्वयं गो० तुलसीदासजी ने अपने दूसरे जन्म में अपने पूर्व जन्म का अन्त समय लिखा है, युक्ति-संगत बात नहीं है । यदि उल्लिखित कारण से तुलसी साहब (हाथरसवाले) को पूर्व जन्म में गो० तुलसीदासजी महाराज मान लिया जाये और यह भी सिद्ध हो जाये कि गो० तुलसीदासजी महाराज सम्बन्धी घट रामायण की सब बातें सत्य हैं, तो उपर्युक्त बात का मानना सार्थक हो सकता है । पर इसे मान लेने पर भी जब गो० तुलसीदासजी महाराज सम्बन्धी घट रामायण की और सब बातें सत्य नहीं सिद्ध होती हैं, तब इसे मानना भी ठीक नहीं। उपर्युक्त कारणों से घट रामायण गो० तुलसीदासजी महाराज कृत और संवत् १६१८ की बनी हुई किसी तरह भी मानने योग्य नहीं है । ज्येष्ठ शुक्ला द्वितीया को प्रति वर्ष शहर हाथरस में तुलसी साहब के मन्दिर में उनका (तुलसी साहब) का भण्डारा होता है । संवत् १९९१, सन् १९३४ ई० के इस अवसर पर मैं वहाँ जिला पूर्णियाँ, ग्राम भंगहा निवासी श्री बाबू कालाचन्द साहजी और उक्त जिले के ही ग्राम मोरसण्डा निवासी गोसाईं हरंगी दासजी को संग लिये, जा पहुँचा । देखा कि तुलसी साहब के समाधि मन्दिर में एक चौकी पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखी हुई घट रामायण रखी हुई है। इसके अन्त में मनोहर दास का दस्तखत है और पुस्तक की लिखाई को समाप्ति को मिति चैत्र बदी ६ सोमवार संवत् १९२१ लिखी हुई है । मतलब यह कि घट रामायण की यह प्रति तुलसी साहब के चोला छोड़ने के लगभग २० ही वर्ष पीछे लिखी गयी है । मैं अपने साथ में बाबा देवी साहब की छपायी घट रामायण और वेलवेडियर प्रेस को छपी घट रामायण, दोनों लेता गया था। इनको मैंने और बाबू काला चन्द साहजी ने समाधि-भवन में रखी उक्त घट रामायण से मिलायी । बाबा देवी साहब की छपायी घट रामायण में जहाँ-जहाँ 'प्रश्न गोसाईं जी महाराज' वा 'बाच गोसाईं जी महाराज' लिखा हुआ है, तहाँ-तहाँ वेलवेडियर प्रेस की छपी घट रामायण में 'प्रश्न तुलसी साहब' वा 'वचन तुलसी साहब' लिखा हुआ है । और उक्त समाधि-भवन में रखी हुई घट रामायण में भी उन स्थलों पर 'गोसाईं जी महाराज' वा 'तुलसी दास' लिखा हुआ है, न कि तुलसी साहब। और घट रामायण के पद से भी यही ज्ञात होता है कि लोग घट रामायण के तुलसीजी को साहब कहकर नहीं पुकारते थे, बल्कि गोसाईं कहकर पुकारते थे। जैसे-"तुलसी तुल जाई गुरु पद कञ्ज लखाई। मैं गरीब कछु गुन नहिं पाई मोको कहत गुसाईं ॥" घट रामायण में जहाँ पर गोसाईं जी के जीवन चरित्र का आरम्भ किया गया है, वहाँ वेलवेडियर प्रेस की छपी घट रामायण में बड़े-बड़े अक्षरों के शीर्षक में ‘तुलसी साहब के पूर्व जन्म का हाल’ लिखा है। परन्तु यह शीर्षक हाथरस के समाधि-मन्दिर की घट रामायण में नहीं लिखा हुआ है । वेलवेडियर प्रेस छपी घटरामायण को पढ़ने से ज्ञात होता है कि उसमें वर्णित सब संवाद तुलसी साहब और इन लोगों के बीच हुए, जिन लोगों के नाम घट रामायण में दिये हुए हैं । पर हाथरस की उक्त घट रामायण को और बाबा देवी साहब की छपवायी घट रामायण को पढ़ने से ज्ञात होता है कि सब संवाद गोसाईं तुलसी दासजी महाराज के साथ उन लोगों का हुआ है, जिनका नाम घटरामायण में लिखा हआ है । घट रामायण में लिखा है कि संवत् १६१५ में गोसाईं जी (तुलसीदासजी) अपने गाँव राजापुर से काशी पहुँचे । संवत् १६१६ में काशी के रहनेवाले एक नानक शाही सन्त गोसाईं जी से मिलने को आये । गोसाईं जी से उनका संवाद हुआ, उससे वह सुखी होकर अपने स्थान पर चले गये । ("सोला* सैं सोला में सोई । कार्तिक बदी पञ्चमी होई ॥ आये पलक राम एक सन्ती। रहे काशी में नानक पन्थी॥") घट रामायण में संवाद का सिलसिला इस तरह लिखा है—पहला संवाद तकी मियाँ का, दूसरा जैनियों का, तीसरा पण्डितों का, चौथा मानगिरी संन्यासी का, पाँचवाँ फूल दास कबीरपन्थी का, छठा रेती दास कबीरपन्थी का, सातवाँ मुसलमान साधु अली मियाँ का, आठवाँ गुनवाँ का, नवाँ प्रिय लाल का, दसवाँ पलकराम नानकपन्थी का और ग्यारहवाँ गुपाल गोसाईं कबीरपन्थी का है। जिस क्रम से सब संवाद लिखे हुए हैं, उससे बोध होता है कि पलकराम नानकपन्थी से गोसाईं जी के संवाद होने के पूर्व ही उनका संवाद गुपाल गोसाईं के अतिरिक्त वर्णित अन्य लोगों से हुआ । तुलसी साहब विक्रम संवत् की १९वीं शताब्दी में जन्मे थे, इसलिये उनके साथ उपर्युक्त लोगों का (जो १७वीं शताब्दी में थे) संवाद लिखना रायबहादुर बाबू बालेश्वर प्रसाद साहब इलाहाबादीजी की नितान्त भूल है । घटरामायण के पढ़ने से यह भी विदित होता है कि जितने संवाद उसमें लिखे हुए हैं, वे सब-के-सब काशी में हुए और जिस हिरदे अहीर ने गोसाईंजी की कुटी काशीजी में संवत् १६१५ में बनायी थी, उसो के समय में हुए; क्योंकि संवदारम्भ में काशी के पण्डित इत्यादि उसको संग लेकर गोसाईं जी के पास आये थे और संवादों में जहाँ-तहाँ उस (हिरदे) की चर्चा इस तरह होती चली आयी है कि कहीं स्वयं गोसाईंजी हिरदे से कुछ कहते हैं वा कहीं गोसाईं जी से कुछ हिरदे कहता है । इसलिये घट रामायण के अनुसार यह किसी तरह भी मानने योग्य नहीं है कि उसमें वर्णित कोई भी संवाद तुलसी साहब हाथरसवाले के साथ हुआ । अब देखना चाहिये कि घट रामायण के बनानेवाले तुलसी साहब हो सकते हैं या नहीं । घट रामायण में लिखी अनेक अयुक्त, झूठ एवं आत्मश्लाघापूर्ण अधार्मिक बातों के होने से उसके रचयिता सच्चे सन्त हैं, सो कभी नहीं माना जा सकता है । फिर घट रामायण के बनने का समय विक्रम संवत् की १७वीं शताब्दी होने के कारण उसके रचयिता, तुलसी साहब, जिनका जन्म विक्रम संवत् की १९वीं शताब्दी में है, नहीं मानने योग्य है । पर जिनका स्थान और समाधि शहर हाथरस में विद्यमान है और जिनका अन्त समय विक्रम संवत् १९०० में हुआ है, वह तुलसी साहब विक्रम संवत् की १९वीं शताब्दी में अवश्य थे। और घट रामायण ग्रन्थ का मूल यही स्थान माना जाता है और लोगों को घट रामायण पहले इसी स्थान से वा इसी स्थान के साधु से मिली है । तब यही मानना पड़ता है कि घट रामायण के बनानेवाले तुलसी साहब के एक वा कई अनुयायी अवश्य होंगे; और तुलसी साहब के चोला छोड़ने पर ही यह पुस्तक बनी होगी । पर यदि तुलसी साहब केवल नामधारी सन्त हों, सच्चे सन्त नहीं हों, तो यह उन्हीं की बनायी हो, इसमें कुछ संशय नहीं । मुझे तुलसी साहब के जाननेवाले जितने लोगों से साक्षात्कार हुआ है, उन सबों से मैंने यही सुना है कि तुलसी साहब परम सन्त थे । शहर इलाहाबाद, महल्ला अतरसुइया के रहनेवाले वृद्ध महानुभाव बाबू माधव प्रसाद साहब (जो राधास्वामी मत का सत्संग नित्य अपने यहाँ कराते हैं और जिनको राधास्वामी मत के बहुत-से लोग सन्त सतगुरु मानते हैं ) के पास मैं १३-६-१९३४ ई० को गया था । इनसे ज्ञात हुआ कि यह महानुभाव 'सुरत विलास' ग्रन्थ की निसबत कुछ नहीं जानते हैं, पर यह तुलसी साहब को निश्चय ही पूर्ण सन्त मानते हैं। मैं हाथरस की अपनी यात्रा के विषय में पहले लिख चुका हूँ । उसी यात्रा में उपर्युक्त वृद्ध महानुभाव का साक्षात्कार लाभ मैंने किया था । मेरे जानने में ऐसा कोई विशेष कारण नहीं है, जिससे मैं निश्चयपूर्वक कह सकूँ कि तुलसी साहब सच्चे सन्त नहीं थे । इसलिये मैं घट रामायण का कर्त्ता मानकर उनको उन दोषों का दोषी ठहराने में पाप समझता हूँ, जिन दोषों का दोषी घट रामायण के कर्त्ता निश्चय ही ठहरेंगे। घट रामायण में कहीं न राम की स्तुति है और न राम-भक्ति का आदर, पर राम की निन्दा और राम-भक्ति का निषेध अवश्य है । हाँ, इसमें अनाम, सत्तनाम, राम और सब कुछ जो बाहरी ब्रह्माण्ड में है, सो भीतरी पिण्ड वा घट में भी है, ऐसा वर्णन किया गया है । और इसमें अनाम, सत्तनाम, साधु, सन्त और संत सतगुरु की स्तुति और इनकी सेवा-भक्ति के आदर और घट के (अन्तरी) भेद का वर्णन है । तब इसका नाम जो घटरामायण रखा गया है, सो भो एक प्रकार का छल-सा ज्ञात होता है । जान पड़ता है कि राम-विरोधी पुस्तक का नाम छल और चालाकी से घट रामायण इसलिये रखा गया है कि रामायण शब्द से राम को सर्वेश्वर माननेवालों को और रामभक्तों को, आकर्षित कर घट रामायण पढ़ने में लगाकर, उन्हें रामभक्ति से विमुख किया जाये । इस प्रकार का छलमय व्यवहार धर्मात्मा सन्त पुरुष का हो, यह सम्भव नहीं है । रायबहादुर बाबू बालेश्वर प्रसाद साहब अपने वेलवेडियर प्रेस में छपी घट रामायण में तुलसी साहब का जन्म संवत् १८२० के लगभग और उनकी मृत्यु संवत् १८९९ या संवत् १९०० में बतलाते हैं और तुलसी साहब की जीवनी में वह यह भी बतलाते हैं कि "दो—प्रामाणिक सत्संगी अबतक मोजूद हैं, जिन्होंने अपने लड़कपन में तुलसी साहब के दर्शन किये थे और उनमें से एक को तुलसी साहब ने अपनो घट रामायण दिखलायी थी ।" तुलसी साहब की 'रत्नसागर' नामक पुस्तक में जिसे घटरामायण छापने के पहले ही उपर्युक्त राय बहादुर साहब ने प्रेस में छापी थी, वह तुलसी साहब का जन्म संवत् १८४५ और मृत्यु संवत् १९०५ या दो-एक वर्ष आगे-पीछे ठहराते हैं और लिखते हैं कि "बाल अवस्था ही में इनको (तुलसी साहब को) ऐसा तीव्र वैराग्य और प्रचण्ड भक्ति प्राप्त हुई कि घर-बार छोड़कर भेष ले लिया ।" उन्होंने (राय बहादुर बाबू बालेश्वर प्रसाद साहब ने) इस पुस्तक में तुलसी साहब के युवराज और महाराष्ट्री होने की चर्चा नहीं की है, पर घट रामायण में तुलसी साहब की जीवनी लिखकर उन्होंने इसकी अच्छी चर्चा की है । फिर घट रामायण में वे लिखते हैं कि "युवावस्था में आपने (तुलसी साहब ने) घर छोड़ा था । विचारने की बात है कि उन्होंने 'रत्नसागर' में तुलसी साहब के गह-त्याग की बात एवं जन्म और शरीर-त्याग की बातें जिस प्रामाणिक आधार पर लिखी हैं, घट रामायण छापते समय उन प्रमाणों का विश्वास न कर 'सुरत विलास' की प्रामाणिकता पर भरोसा किया और तदनुसार तुलसी साहब को युवराज एवं महाराष्ट्री होना माना । परन्तु 'सुरत विलास' की बातें प्रामाणिक ऐतिहासिक प्रन्थों के अनुसार कुछ भी विश्वास करने योग्य नहीं है । फिर देखिये आप (उपर्युक्त राय बहादुर साहब) घट रामायण के तुलसी साहब के जीवन-चरित्र में लिखते हैं कि "तुलसी साहब ने घट रामायण में लिखा है कि आपही गोसाईं तुलसीदासजी रामायण के ग्रंथकर्त्ता के चोले में थे ।" परन्तु घट रामायण पढ़कर देखिये, उसमें ऐसी बात नहीं लिखी है । फिर उक्त राय बहादुर साहब ने 'रत्न-सागर' के तुलसी साहब के जीवन-चरित्र में यह लिखा है कि "तुलसी साहब की घट रामायण उनके मत के आचार्य देवी साहब छाप चुके हैं ।" बाबा देवी साहब को तुलसी साहब के मत का आचार्य कहना भी इनका पूर्ण असत्य है; क्योंकि मैं १९०९ ई० में बाबा देवी साहब के सत्संग का सत्संगी बना, परन्तु आजतक मैंने यह नहीं जाना कि बाबा देवी साहब तुलसी साहब के मत के आचार्य थे । तुलसी साहब के बाद उनके मत के जितने आचार्य हुए हैं और हैं, उनकी तालिका मेंने इस पुस्तक के अन्त में दे दी है । बाबा देवी साहब तुलसी साहब से न तो भजन-भेद लिये थे और न उनके शब्द-योग का ख्याल; तुलसी साहब के इस योग के ख्याल से मिलता है। अतएव जो कोई बाबा देवी साहब को तुलसी साहब के मत का आचार्य कहते हैं वा उन्हें उनका परम शिष्य मानते हैं, वे कपोल कल्पित बातें कहते हैं । ऐसी मनगढ़ंत बातें लिखने के कारण उपर्युक्त राय बहादुर बाबू बालेश्वर प्रसाद साहब की यह बात भी कैसे मानी जाये कि तुलसी साहब ने अपनो बनायी घट रामायण एक प्रामाणिक सत्संगी महाशय को दिखायी थी । कदाचित् तुलसी साहब को घट रामायण का कर्त्ता मान लिया जाये, तो घट रामायण की ऊटपटांग रचना के कारण वे सच्चे सन्त नहीं माने जा सकते हैं । इस दोष से उन्हें बचाने के लिये एक ही उपाय हो सकता है कि यह मान लिया जाये कि तुलसी साहब ने अपनी मौज से जबतब अन्तरी भेद को उत्तम वाणियाँ कही हों और उनके अनुयायियों ने उन्हें संग्रह कर उनमें अपनी ओर से मनमानी बातें मिला, तुलसी साहब के पीछे एक पुस्तक बनाकर उसका नाम घट रामायण रखा हो । घट रामायण में लिखे कुछ पद्यों को पढ़ने से झलकता है कि वे तुलसी साहब के लिखे हैं; परन्तु विचार करने से जान पड़ता है कि यह बात असत्य है-उनके नाम पर किसी दूसरे ने लिखा है । उदाहरण, सोरठा—"तुलसी देखि बिहाल, तुरत निहाल तापर भये । सुरति सैल में डाल, तब उनकी संशय गई ॥" यदि तुलसी साहब को इस सोरठे का रचयिता माना जाये तो 'भये' के स्थान पर 'भयऊँ' लिखना चाहिये था। पुनः, दो०—"नारि दीन तुलसी लखी, बोले बचन रसाल । दीन हीन जेहि देखि कर, दरशन दिये बिशाल ॥" यदि स्वयं तुलसी साहब ही इस दोहे के रचयिता होते, तो ‘दिये’ की जगह ‘दिएऊँ’ वा ‘दिया’ लिखते । और वह अपने से यह नहीं लिखते कि मैंने विशाल दर्शन दिया; क्योंकि अपने से अपने लिये ऐसा लिखना आत्मश्लाघा है । पुनः, सोरठा—“तकी तका निज खेल, मुरशिद तुलसी सौ कहे । यह बिधि कीनी सैल, जो अदबुद अन्दर लषा ॥" जब शिष्य तकी अपने गुरु तुलसी साहब से कुछ बयान करता है, तो स्वयं गुरु तुलसी साहब उस बात को इस तरह लिखें (जैसा सोरठा है), सम्भव नहीं । इस पद्य से भी यही लक्षित होता है कि इसके कर्त्ता तुलसी साहब नहीं हैं । पुनः, “फूल दास बिनती करै, तुलसी स्वामी साथ ।” इसका लेखक भी तुलसी साहब को मानने से उन पर आत्मश्लाघा दोष आता है । पुनः, “आज्ञा स्वामी दीन बनाई । तब गुनवाँ मारग को जाई ॥" यहाँ स्वामी शब्द तुलसी साहब के लिये माना जायेगा और गुनवाँ हिरदे अहीर का बेटा उनका शिष्य है । इस पद से भी यही ध्वनि होती है कि इसके लेखक तुलसी साहब नहीं हैं, कोई दूसरा है। पुनः, त्रोटक छन्द—“नहिं आना जाना, कर्म नसाना, तुलसी सतगुरु राह दई ।" यह इस छन्द की नौवीं कड़ी है। इस छन्द में कुल तेरह कड़ियाँ लिखी हैं । तेरहवीं कड़ी में भी भनिता के लिये ‘तुलसी’ शब्द आया जान पड़ता है। छन्द का सारांश है कि तुलसी साहब के तेरह शिष्य भव पार हो गये । उपर्युक्त नवीं कड़ी का अर्थ है कि उनका (शिष्यों का) कर्म नाश हो गया, उनको आना-जाना वा जनमना-मरना नहीं रहा, उनको सतगुरु तुलसी ने रास्ता दिया। इस छन्द को तुलसी साहब का बनाया मानना ठीक नहीं, इससे उन्हें आत्म-प्रशंसा का भारी दोष लगता है । अतएव यह भी किसी दूसरे का लिखा है। इस प्रकार के और कितने पद्य घट रामायण में हैं, जिनके पढ़ने से स्पष्ट बोध होता है कि इस ग्रन्य में तुलसी साहब के अतिरिक्त ऐसे अन्य व्यक्ति के लिखे पद्य हैं, जो तुलसी साहब को ऊँची दृष्टि से देखनेवाला उनका भक्त है । अतएव घट रामायण बनने का समय और उसके रचयिता के विषय में मैंने जो विचार दिया है, उसमें संशय नहीं रहता है । तब यदि प्रश्न हो कि ग्रंथकर्त्ता ने ग्रंथ में अपने नाम के बदले गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज का नाम क्यों दिया, तो उत्तर हो सकता है कि गोस्वामी जी महाराज के नाम से लोगों को उस पर विश्वास होगा ।