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भावार्थ सहित घटरामायण - पदावली 

भूमिका

घट रामायण नाम की पुस्तक मुझको सन्तमत-सत्संग में सम्मिलित होने पर मिली। इसके रचयिता हाथरस में रहनेवाले सन्त शिरोमणि तुलसी साहब हैं, ऐसा जानने में आया। परन्तु पुस्तक के पढ़ने पर मुझको बोध हुआ कि यद्यपि तुलसी साहब के सदृश परम सन्त के बहुमूल्य पद्य बहुत हैं, तथापि अन्यों के बीच उन बहुमूल्य पद्यों के अतिरिक्त और अधिक पद्य पुस्तक में अवश्य हैं, जो तुलसी साहब की रचना नहीं मानने योग्य हैं। इसका विचार मैंने इस भूमिका में लिख दिया है और परम सन्त तुलसी साहब के भी विषय में लिख दिया है कि वे कौन थे ? ग्रंथ के अन्दर जो मिथ्या और अयुक्त बातें मुझे मालूम हुईं, मैं उन बातों को उन परम सन्त की नहीं मानता हूँ।

भूमिका-01

परम प्रभु सर्वेश्वर को मनुष्य अपने घट में कहाँ और कैसे पा सकता है, यह विषय घटरामायण में अत्यन्त उत्तमता से लिखा हुआ है। इसके अतिरिक्त घट-सम्बन्धी और अनेक बातें इसमें लिखी हुई हैं। पर, इसकी मुख्य बात घट में परम प्रभु के पाने का सरल भेद ही है। घट रामायण में यह भेद ऐसा सरल बतलाया गया है कि जिसके द्वारा अभ्यास करने से अभ्यासी को अभ्यास के कारण शारीरिक कष्ट और रोगादि होने की कोई खटक नहीं होती है और गृही तथा वैरागी सब मनुष्य सरलतापूर्वक इसका अभ्यास कर सकते हैं। इसमें शरीर से नहीं, केवल सुरत से अभ्यास करने का भक्तिमय भेद लिखा हुआ है। परम प्रभु सर्वेश्वर से मिलने के भक्तिमय भेद की यह एक अनुपम पुस्तक है। इसमें भक्ति करने की अत्यन्त आवश्यकता बतलाकर बाहरी और अन्तरी दोनों भक्तियों का वर्णन है। 

“बिन भक्ति न पइहैं जनम गमइहैं,
सन्त सरन बिन राह नहीं।"

“तासे सन्तन भक्ति दृढाई।
बिना भक्ति उबरै नहिं भाई॥

भक्ति बिना जीव जम करै हाना।
बिना भक्ति चौरासी खाना॥

बिना भक्ति कोई पार न जाई।
तासे भक्ति सन्त ठहराई॥"

"तन मन धन सन्तन पर वारै।
निज नित सत्संगति को लारै॥

दास भाव सत्संगति लीना।
दीन हीन मन होइ अधीना॥

चित्त भाव दिल मारग पावै।
सब साधन की टहल सोहावै॥

जब या मुक्ति जीव की होई।
मुक्ति जानि सतगुरु पद सेई॥"

घट रामायण के इन पद्यों में साधु, सन्त और सद्गुरु की सेवा और सत्संगादि बाहरी भक्ति का वर्णन है।
और, 

"पकरि पट पिउ पिउ करै",

"सतगुरु अगम सिन्धु सुखदाई।
जिन सत राह रीति दरसाई॥

मोरे इष्ट सन्त स्रुति सारा।
सतगुरु सन्त परम पद पारा॥

सतगुरु सत्त पुरुष अविनासी।
राह दीन लखि काटी फाँसी॥

जिन सतगुरु पद चरन सिहारा।
सोइ पारस भये अगम अपारा॥

सतगुरु पारस सन्त बखाना।
चौथा पद चढ़ि अगम कहाना॥


और इष्ट नहिं जानै भाई।
सतगुरु चरन गहै चितलाई॥

हम सन्तन मत अगम बखाना।
हम तो इष्ट सन्त को जाना॥


उन सम इष्ट और नहिं भाई।
राम करम बस भौ के माँई॥" *


"तुलसी सतगुरु को दृष्टि तासे निरखा अदृष्ट।
सत्तलोक पुरुष इष्ट वे दयाल न्यारा।"


"तुलसी इष्ट सन्त को जाना।
निरगुन सरगुन दोउ न माना **।।


वो दयाल कहुँ राह बतावै।
तब जीव अपने घर को जावे॥"


"कोई भेंटैं दीन दयाल डगर बतलावैं।
जेहि घर से आया जोव तहाँ पहुंचावैं॥


दरसन उनके उर माहिं करैं बड़भागी।
तिनके तरने की नाव किनारे लागी॥"

घट रामायण के इन पद्यों में अन्तर के प्रथम पट (नयनाकाश-स्थित अन्धकार) को मन से पकड़े रहकर अर्थात् मन को उससे बाहर न जाने देकर वर्णात्मक नाम को जपना और सन्त सतगुरु को सत्य पुरुष (सत साहिब) तुल्य जानकर उनको इष्ट मानना और उनका ध्यान करना, अन्तर में दो स्थूल भक्ति-साधनाओं के वर्णन हैं। इन दोनों प्रकार की साधनाओं से चित्त की शुद्धि होती है तथा प्रथम पट में सुरत का सिमटाव होकर अभ्यासी में यह योग्यता होती है कि वह सूक्ष्म भण्डल में प्रवेश के द्वार को पाने का साधन कर सके। जैसे मोटे अक्षरों का लिखना सीखे बिना कोई बारीक अक्षरों को नहीं लिख सकता है, वैसे ही मोटी भक्ति के साधनाओं का अभ्यास किये बिना भक्ति के सूक्ष्म द्वार का पाना असम्भव है।

"भक्ति द्वारा सांकरा, राई दसमें भाव।
मन ऐरावत ह्वै रहा, कैसे होय समाव॥”
( कबीर साहब ) 

और,

"तुलसी तोल कही तिल तट की।"

"श्याम कंज लीला गिरि सोई।
तिल परिमान जान जन कोई॥

छिन छिन मन को तहाँ लगावै।
एक पलक छूटन नहिं पावै॥"

घटरामायण के इन पद्यों में दृष्टि*** योग द्वारा अन्तर में सूक्ष्म भक्ति-साधन का वर्णन है। इस साधन को किये बिना सूक्ष्म मण्डल में चलकर सुरत सूक्ष्म भक्ति का अभ्यास नहीं कर सकती है।
और, 

"धुनि धधक धीर गँभीर मुरली,
मरम मन मारग गहौ॥"

"गगन द्वार दीसै एक तारा।
अनहद नाद सुनै झनकारा॥

अनहद सुनै गुनै नहिं भाई।
सूरति ठीक ठहरि जब जाई॥"

"तल्ली ताल तरंग बखानी।
मोहन मुरली बजजै सुहानी॥

मुरली नाद साध मन सोवा।
विष रस बादि विधी सब खोवा॥"

"भई धुनि ररंकार रस रट की।"

"सुनि धुनि ताल तरंग आतम जीव

पछिम दिसा दिस देत दिखाई॥"

"घट में बैठे पाँचो नादा।
घट में लागी सहज समाधा।"

"पाँच शब्द का कहूँ विधाना।
न्यारा न्यारा ठाम ठिकाना॥

सत्त शब्द सतलोक निवासा।
जहवाँ सत्तपुरुष का बासा॥

दूजा शब्द सुन्न के माई।
तीजा अक्षर शब्द कहाई॥

चौथा ओंकार बिधि गाई।
पंचम शब्द निरंजन राई॥"

घट रामायण के इन पद्यों में मायावी ध्वनियों के अभ्यास से सारशब्द तक के सुरत-शब्द-योग का वर्णन है। इस तरह सुरत-शब्द-योगाभ्यास से सूक्ष्मातिसूक्ष्म प्रकार की भक्ति कर भक्ति की चरम सीमा तक पहुँचना पूर्ण रूप से सम्भव है। सारांश यह कि परम प्रभु से मिलने को घट-अन्तर में चलना भक्ति है, इसका रास्ता अर्थात् भक्ति-मार्ग अन्तर में है और इस मार्ग पर चलने की योग्यता प्राप्त कराने का तथा इस मार्ग पर चलने का भेद, वर्णात्मक शब्द का जप, गुरु के स्थूल रूप का ध्यान, दृष्टि-योग और (पञ्च अनाहत नादों के ध्यानाभ्यास द्वारा) सुरत-शब्द-योग इत्यादि हैं; इन बातों का प्रतिपादन घट रामायण में किया गया है।



पाद टिप्पणी : -


* श्रीराम के वनवास के दूसरे दिन की रात में गंगा जी के तट पर उनको वृक्ष-पत्तों के बिछौने पर सोये देखकर लक्ष्मण जी के पास बैठे गुह निषाद ने बहुत खेद और दुःख की बातें कहकर कहा कि माता कैकेयी ने इनको बहुत कष्ट दिया। तिस पर लक्ष्मणजी ने निषाद से कहा- ‘काहु न कोउ सुख-दुख कर दाता। निज कृत करम भोग सुनु भ्राता।"
** सन्त को इष्ट मानना, परन्तु निगुण-सगुण नहीं मानना अयुक्त और विचित्र बात जान पड़ती है। 
*** दृष्टि निगाह यानी देखने की शक्ति को कहते हैं। आँख, डीम और पुतली को दृष्टि नहीं कहते हैं। दृष्टियोग-अभ्यास में आँख पर जोर लगाना वा डीमों और पुतलियों को किसी ओर झुकाना वा उलटाना अनावश्यक है।


भूमिका-02

इस ग्रंथ के रचयिता कौन हैं, इसका विचार मैं पीछे लिखेगा। उत्तर प्रदेश, जिला अलीगढ़, शहर हाथरस के किला दरवाजा में 'तुलसी साहब का मन्दिर' नाम से एक प्रसिद्ध स्थान है। वहीं से घट रामायण की नकल कराकर बाबा देवी साहब जी ने सन् 1896 ई० में इसको पहले-पहल छपवाया, जो अब नहीं मिलती है। अब यह पूरी पुस्तक दो भागों में वेलवेडियर प्रेस, इलाहाबाद से 3 रु० मूल्य में मिलती है और डाक खर्च ग्राहक को अलग देना पड़ता है। जैसे गुलाब के गाछ में सुन्दर और सुगन्धित फूल और गड़नेवाले काँटे दोनों ही होते हैं, ऐसे ही घटरामायण के जिस परमोपयोगी विषय की चर्चा में कर चुका हूँ, उसके अतिरिक्त उसमें अनुपयोगी, झूठी तथा अयुक्त बातें भी बहुत-सी हैं, और एक ही विषय का बारम्बार वर्णन करने के कारण पुस्तक बहुत बड़ी हो गई है।

भूमिका-03

इसके केवल मुख्य और परमोपयोगी विषय को चुन कर अलग कर लिया जाय तो थोड़े मूल्य की छोटी-सी पोथी हो जायगी। इसी विचार से प्रेरित होकर मैंने चुनाव करके, ‘भावार्थ सहित घटरामायण के मुख्य और परमोपयोगी विषय की पदावली’ नाम्नी यह छोटी पुस्तिका अभ्यासी सत्संगियों के करकमलों में पहुँचाने का प्रयास किया है। मुख्य और परमोपयोगी विषय के अतिरिक्त घटरामायण में 36 नीर, 85 पवन, 16 गगन, 6 त्रिकुटियां, 32 नालें, 16 द्वार, जीव और यम की बातचीत, 22 शून्य, 72 कोठे और 84 सिद्ध4 इत्यादि के नाम लिखे हुए हैं। उसमें प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान पंच वायु को पंच इन्द्रिय कहकर लिखा हुआ है और 25 प्रकृतियों के भाव, क्रता, देह, धर और नल दया आदि ऐसे अनूठे अनूठे नाम लिखे हुए हैं, जिन्हें उनके लेखक ( अर्थात घटरामायण के कर्ता ) को छोड़ अन्य विद्वान, साधु वा पण्डित नहीं जानते होंगे। और उसमें इस प्रकार के 34 प्रश्न हैं; यथा-पृथ्वी का माथा कहाँ है, सूर्य का तेज कहाँ है और तिल भर हाड़ काया में कहाँ है इत्यादि और इनके अनूठे-अनूठे उत्तर क्रम से लिखे हैं। 4 वैराग्य, 4 ज्ञान और 13 भक्तियाँ, फिर गोसाईं तुलसीदासजी का जीवन-चरित्र और काशीजी का हाल, मुसलमान, जैनी, पण्डित, संन्यासी, कबीर-पन्थी, वैष्णव और नानक पन्थी से गोसाईं तुलसीदासजी का संवाद, लोमश ऋषि का अपने पिता से संवाद और भेद राम रामायण इत्यादि विषयों का वर्णन किया गया है, जिनमें बहुत-सी बातें समझ में नहीं आती हैं। उनमें से कुछ बातें सत्संग-प्रेमियों की जानकारी के लिये में आवश्यक जानकर लिख देता हूँ।

भूमिका-04

घटरामायण में लिखा है कि यह पुस्तक संवत् 1618 की बनी हुई है। इसके रचयिता 7 काण्ड रामायण (रामचरितमानस) के कर्ता गोसाईं तुलसीदासजी महाराज हैं, जिन्होंने इसको रामचरितमानस बनाने के पहले ही बनाया था। घट रामायण को लोगों ने नहीं माना, झगड़ा किया, तब उसको छिपाकर गोसाईंजी महाराज ने 7 काण्ड रामायण बनाई। घटरामायण में कागभुशुण्डि को चर्चा की गई है। यथा –
चौपाई -

‘घट में सुरति सैल जस कीना ।
कागभुशुण्डि भाखि तस दीना ॥

कागभुशुण्डि कितहु नहिं भयेऊ ।
तुलसी सुरति सैल तन कहेऊ ॥

कागभुशुण्डि काया के माई ।
राम रमा मुख पेठा जाई॥

तुलसी तिनकी गति मति जानी ।
रामायण में कीन बखानी॥’

‘अस भुसुण्ड भिनि अण्ड निहारा,
राम रमा मुख बाई समाई।

रामायनि लखि साखि सुनाऊ,
हिये दृग देत दिखाई ॥"

रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में गोसाईं तुलसीदास जी ने विस्तार के साथ कागभुशुण्डि की कथा लिखी है। उसमें वर्णन है कि कागभुशुण्डि ने श्रीराम के मुख में पैठकर उनके पेट में अनेक ब्रह्माण्डों को देखा है। ऊपर लिखित घट रामायण के पद्यों में इसी कथा का संक्षेप में वर्णन पाया जाता है। फिर भक्ति के वर्णन का आरम्भ घटरामायण में इस प्रकार किया गया है। यथा-
चौपाई -

अब सुन भक्ति भाव कर लेखा।
रामायण में किन्ह बिबेका ॥

भक्ति भाव नौ वरनि सुनाई।
तासे भिन्न चारि पुनि भाई ॥

नौ फल भाव वेद बतलावे।
जो जस करे भोग तस पावे ॥

नौ की राह मुक्ति नहिं पावै ।
दशमी अविरल भक्ति लखावै॥

एकादश अनुपावन लेई ।
बार बार मुक्ती वर देई ॥

भेद भक्ति कर भाखों लेखा।
इष्ट भाव मन बसै बिवेका ॥

अब अभेद का भेद अभेदा ।
ताको मरम न पावै बेदा ॥

कोइ कोइ साध सन्त गति पाई।
जिनकी सूरति शब्द समाई॥"

इन चौपाइयों का आशय यह है कि रामायण (रामचरितमानस) में नौ भक्तियों का वर्णन किया गया है, परन्तु उनके अतिरिक्त 4 भक्तियाँ (अविरल, अनुपावन, भेद और अभेद) और हैं। रामचरितमानस में कागभुशुण्डि की कथा और भक्ति के वर्णनों से यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि घटरामायण रामचरितमानस रामायण के पीछे बनी है, न कि उसके पहले। घटरामायण और रामचरितमानस (7 कांड रामायण) बनने के विषय में ये चौपाइयाँ लिखी हैं – 



‘सोलह सै अठरा के माईं।
घटरामायण कीन बनाई ॥

पिरथम घटरामायण कीना।
काशी सुनि सब अचरज लीना॥

पण्डित हिरदे से भयो झगरा।
और भेख जग काशी सगरा ॥

तब तुलसी मन कियो बिचारा।
घट रामायण दूरै डारा॥

जग विरोध देखा जब जानी।
सात काण्ड रामायण बखानी ॥

रावन राम कीन सम्बादा।
तब काशी में चली अगाधा ॥

सम्बत् सोलह सै इकतीसा।
राम चरित्र किन्ह पद ईसा ॥

जग में झगरा जाना भाई।
रावन राम चरित्र बनाई ॥

पण्डित भेष जगत सब झारी।
रामायण सुनि भये सुखारी॥

तुलसी तो भये राम उपासी।
अस अस जगत करे सब हाँसी ॥

उन अधरन मिलि के हम गाया।
यहि विधि रामचरित्र बनाया ॥

सब अन्धा में हूँ पुनि चोटा ।
कस कस कहूँ जगत सब खोटा ॥

राम जगत हम यहि विधि गावा।
नहि देखा जग और निभावा ॥’

जब घटरामायण से ही यह बात सिद्ध कर दी गई कि रामचरितमानस (7 काण्ड रामायण) के बनने के पीछे घटरामायण बनी है, तब फिर घटरामायण में ऊपर लिखी चौपाइयों की बातें सत्य वा असत्य हैं, क्या कहकर मानो जाए; सो विचारवान पाठकों के विचार पर ही छोड़ता हूँ। यदि घटरामायण और रामचरितमानस के कर्ता एक ही तुलसी दास जी महाराज हैं, तो 7 काण्ड रामायण में उन्होंने नवधा भक्ति का वर्णन करके यह दिखा दिया कि शबरी नवधा भक्ति की सब भक्तियों में दृढ़ थी। बह योगाग्नि में देह6 त्याग कर उस पद में जाकर लीन हुई, जहाँ से कोई लौटकर नहीं आता है, अर्थात् उसको परम मोक्ष हो गया। और घटरामायण में उन्होंने ही लिखा है कि, "नौ की राह मुक्ति नहिं पावै" अर्थात नवधा भक्ति से मुक्ति नहीं होती है।

भूमिका-05

फिर दोनों पुस्तकों (रामचरितमानस और घटरामायण) को कविताओं की लेखनशैली पर विचार करने से जान पड़ता है कि दोनों के लिखने वाले दो पुरुष हैं, एक नहीं। यह बात तो विख्यात ही है कि रामचरितमानस गोसाईं तुलसीदास जी का बनाया हुआ है। इसलिये घटरामायण उनकी बनाई हुई कदापि नहीं है। घटरामायण में जो जीवन-चरित्र गोसाईं तुलसीदास जी महाराज के नाम से लिखा हुआ है, वह उनका ( रामचरितमानस के कर्ता गोसाईं तुलसी दास जी का ) कदापि नहीं है; क्योंकि गोसाईं जी का जीवन-चरित्र जितने लोगों ने प्रामाणिक बातों को ढूँढ-ढूँढकर लिखा है, उसमें ऐसा किसी ने नहीं लिखा है जैसा कि घटरामायण में लिखा है। घटरामायण में लिखित जीवन-चरित में लिखा है कि "गोसाईं जी के कोई देहधारी गुरु नहीं थे, इन्हें अपने-आप अन्तर का भेद खुल गया था, इनको अपने घर राजापुर ग्राम में ही परम सिद्धि प्राप्त हो चुकी थी, वहाँ उनके दर्शनों को बहुत-से स्त्री पुरुष जाया करते थे और उनको बड़ी तारीफें किया करते थे । काशी का रहनेवाला हिरदे7 अहीर इनका परम भक्त शिष्य था, जो राजापुर में नौकरी करता था। एक बार जब वह अहीर अपने घर काशी चला गया और घर में रहते उसको बहुत दिन बीत गये, तो गोसाईं जी, जिनका चित्त हिरदे में बसता था ( "हमारा चित्त हिरदे में बासी । हम चलि गये नगर जहाँ काशी ॥" ), संवत् 1615 में काशी पहुँचे, जहाँ हिरदे ने उनके लिये कुटी बना दी। काशी में गोसाईंजो के घटरामायण बनने पर हिरदे को पण्डित वगैरह से झगडा हुआ । अनेक मतवालों से गोसाईं जी का संवाद हुआ, जिनको अपनी बातों से कायल करके गोसाईं जी ने अपना शिष्य बना लिया। 8 जब घटरामायण को लोगों ने चलने नहीं दिया, तब अन्त में उन्होंने लोगों को राजी करने के लिये रामचरितमानस रामायण बनाई।" घटरामायण में यह भी लिखा हुआ है कि गोसाईं जी अनामी पद तक पहुँचे हए थे। यह पहुँच उनको अपने घर राजापुर गाँव में ही प्राप्त हुई थी। संवत् 1618 में घटरामायण और संवत् 1631 में रामचरितमानस रामायण उन्होंने बनाई। इससे प्रकट होता है कि अनामी पद तक पहुँचकर उन्होंने उपयुक्त दोनों पुस्तकें बनाई।
जानना चाहिये कि अनामी पद अर्थात् नामातीत पद को प्राप्त करना आत्मोन्नति के शिखर पर चढ़कर आत्मबल की पूर्णता को प्राप्त करके परम सिद्धि को प्राप्त करना है। जिसको यह प्राप्त हो, जो अपने बुद्धि-बल से काशी में अपने समय के बड़े-बड़े पण्डितों को परास्त कर अपना शिष्य बना सके और जिसकी अपनी पहुँच के बराबर वाले तेरह शिष्य हों और जो अपना अनुभव-ज्ञान और अपनी अपरोक्षानुभूति की पुस्तक-घटरामायण बनावे, पर केवल लोक-विरोध के कारण उसको वह अत्यन्त आत्मबल-हीन की तरह छिपा रक्खे और जब वह जाने कि संसार में निर्वाह के हेतु दूसरा ढंग नहीं है, तब वह जनता को खुश करने के हेतु दूसरी लोकप्रिय पुस्तक रामचरितमानस बनावे, यह विश्वास-योग्य बात नहीं है। फिर दोनों पुस्तकों में एक ही विषय के वर्णन में विरोध वा प्रतिकूल भावना है, इससे भी स्पष्ट है कि दोनों पुस्तकों का कर्ता एक ही व्यक्ति नहीं है। नवधा भक्ति के विषय में दोनों की भावनाएँ लिखी जा चुकी हैं, और उदाहरण दिया जाता है। घटरामायण में लिखा है -
॥ चौपाई ॥

"राम राम जो जपै बनाई।
जाको जनम अकारथ जाई॥

राम कहो सो मन है भाई ।
मनहि राम जिन जगत डुबाई ॥

राम काल सब सन्त पुकारा ।
ताको जप ये जक्ति लवारा॥

राम काल जो जपिहै भाई ।
जम बन्धन भौ खानि समाई ॥

और इष्ट नहिं जानै भाई ।
सतगुरु चरन गहै लौ लाई॥

राम काल को दूरि बोहावै।
निशि दिन संत चरन लौ लावै ॥

सन्त चरन पावै निरवारा ।
राम काल जग फाँसी डारा ॥

राम खानि बस आप रहाई ।
तुमको कस मुक्ति दिलवाई॥

राम राम की झूठी आशा ।
गये राम कहे जम की फाँसा ॥

कृष्ण राम दोउ जम की जारा ।
करि करि इष्ट जगत सब मारा॥

राम राम कछु इष्ट न मानो ।
जग अंधरे को कहा बखानी ॥

जो कोई करे राम की टेका ।
सो भाऊ भरमै खानि अनेका ॥

जो कोइ कहे राम से तरिहै ।
झूठ जानि मनमें नहिं धरिहै ॥

साधु सन्त राम नहिं माना ।
राम से परे एक और जाना॥

राम राम मन बूझो भाई ।
मन को राम सन्त गोहराई॥

महादेव ने जाप न कीना ।
ये साखी झूठी तुम दीना॥

(महादेव राम नहिं जपिया ।
ये साखी झूठी तुम कहिया)

महादेव तो जोग कमाया।
राम राम योगी नहिं गाया ॥"

रामचरितमानस में लिखा है-

॥ चौपाई ॥
"पुनि मन वचन कर्म रघुनायक ।
चरन कमल बन्दउँ सब लायक ॥
जापक जन प्रह्लाद जिमि,
पालहि दलि सुर साल ।
पुरुष प्रसिद्ध प्रकास निधि,
प्रगट परावर नाथ ।
रघुकुल मनि मम स्वामि सोई,
कहि शिव नायउ माथ ।।


॥ चौपाई ॥
राम नाम शिव सुमिरन लागे ।
जानेउ सती जगत पति जागे ॥
नाम जीह जपि जागहिं जोगी।
बिरति बिरञ्चि प्रपञ्च वियोगी ॥


दोहा-
काम क्रोध मद लोभ सब,
नाथ नरक कर पंथ ।
सब परिहरि रघुबीर ही,
भजहु भजहिं जेहि सन्त ॥


॥ चौपाई ॥
राम सनेह सरस मन जासू ।
साधु सभा बड़ आदर तासू ।।
सोह न राम प्रेम बिनु ज्ञानू ।
करनधार बिनु जिमि जलजानू ॥
सो सुख करम धरम जरि जाऊ।
जहँ न राम पद पङ्कज भाऊ ॥
जोग कुजोग ज्ञान अज्ञानू ।
जहँ नहिं राम प्रेम परधानू ।।


छन्द-
मन-ज्ञान-गुण-गोतीत प्रभु,
मैं दीख जप तप का किये।
नर विविध कर्म अधर्म बहुमत,
सोक प्रद सब त्यागहू।
विश्वास करि कह दास तुलसी,
राम पद अनुरागहू ॥


दोहा-
यह कलि काल मलायतन,
मन करि देखु बिचार ।
श्री रघुनायक नाम तजि,
नाहिन आन अधार ॥


॥ चौपाई ॥
रामहि सुमिरिय गाइय रामहि ।
संतत सुनिय राम गुन ग्रामहि ॥
जासु पतित पावन बर बाना।
गावहिं कवि स्रुति संत पुराना॥
ताहि भजहिं मन तजि कुटिलाई।
राम भजे गति के नाहिं पाई ॥
विषय करन सुर जीव समेता।
सकल एक ते एक एक सचेता ॥
सब कर परम प्रकाशक जोई।
राम अनादि अवध पति सोई॥
मन क्रम वचन अगोचर जोई।
दसरथ अजिर विचर प्रभु सोई॥
जोगिन परम तत्त्वमय भासा ।
सांत सुद्ध सम सहज प्रकासा॥
राम कराउँ केहि भाँति प्रसंसा।
मुनि - महेस - मन मानस हंसा ।।
करहि जोग जोगी जेहि लागी।
कोहु मोहु ममता मद त्यागी॥
व्यापक ब्रह्म अलख अविनासी।
चिदानन्द निगुन गुनरासी ॥
मन समेत जेहि जान न बानी ।
तरकि न सकहिं सकल अनुमानी॥

भूमिका-06

ऊपर लिखित पद्यों से गोसाईं तुलसी दास जी की ये बातें अच्छी तरह प्रकट होती हैं कि-"उनके इष्ट राम थे, शिव जी राम-राम भजते थे और योगी राम-राम भजते हैं। साधु-सन्त राम को मानते हैं और उनके चरणों में अत्यन्त प्रेम करते हैं। राम में प्रेम-बिना ज्ञान, योग, कर्म, धर्म और सुख सब निरर्थक हैं। मनुष्यों को चाहिये कि बहुत-से कर्म, अधर्म और शोकदायी बहुत-से मतों को छोड़कर श्रद्धायुक्त हो राम के चरणों में प्रेम करें। राम-भजन के अतिरिक्त जोवोद्धार के लिये दूसरा उपाय नहीं है। कवि, वेद, सन्त और पुराण सबका इसमें एक मत है कि रामजी का पतितपावन श्रेष्ठ बाना है और उनके सभी भजनेवाले मोक्ष पाते हैं। राम मन, बुद्धि और कर्म के परे हैं।" पर घटरामायण में इन सब बातों के प्रतिकूल लिखा हुआ है । लोक-विरोध से बचकर संसार में अपने निर्वाह के हेतु, इस तरह अपनी पहली पुस्तक के सिद्धान्तों के प्रतिकूल सिद्धान्तों वाली दूसरी पोथी लिखनी और पहली पुस्तक को छिपा रखना, पूर्ण आत्मबल प्राप्त पूर्ण सिद्ध और परम सन्त पुरुष से हो, यह बात कैसे विश्वास की जाय ? रामचरितमानस में यह सोरठा, "बन्दौं गुरु पद कंज, कृपा सिन्धु नर रूप हरि। महा मोह तम पुज, जासु बचन रविकर निकर ॥" को लिखकर स्वयं गोसाईं जी ने यह जनाया है कि उनके कोई शरीरधारी गुरु थे। गोसाईं तुलसी दास जी महाराज का जीवन-वृत्तान्त लिखनेवालों ने यही लिखा है कि गोसाईं जी को स्त्रो के वाक्य से वैराग्य हुआ, वह काशी जा पहुँचे और वहाँ और चित्रकूट आदि स्थानों में अनेक वर्षों तक भजन-अभ्यास करके उन्होंने सिद्धि प्राप्त की। उसमें उनके घटरामायण बनाने, हिरदे अहीर और उससे पण्डितों के झगड़े, अन्य मतावलम्बियों से उनके संवाद, घटरामायण के छिपाने और जनता को खुश करने के लिये सात काण्ड रामायण बनाने की चर्चा अणुमात्र भी नहीं की गई है। यह बात सर्वमान्य है कि रामचरितमानस वा सात काण्ड रामायण के रचयिता गोसाईं तुलसीदास जी महाराज मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम को सपना इष्टदेव मानते थे, पर घटरामायण में लिखा है कि चौपाई - "मोरे इष्ट सन्त स्रुति सारा । सतगुरु सन्त परम पद पारा ।" इस चौपाई से और घटरामायण की कितनी ही दूसरी चौपाइयों से यह अच्छी तरह प्रकट होता है कि घटरामायण बनानेवाले के इष्ट उनके सतगुरु9 थे, न कि श्रीराम!

भूमिका-07

घटरामायण में लिखा है कि "अनाम पद का भेद दादू और दरिया साहबान आदि सन्तों ने वर्णन किया है।" जानना चाहिये कि दो दरिया साहबान हुए हैं, एक मारवाड़ में और दूसरे बिहार में। दोनों समकालीन थे। रामचरितमानस के रचयिता गोसाईं तुलसीदास जी महाराज संवत् 1680 में परम धाम सिधारे हैं और इसके बाद बिहारवाले दरिया साहब का जन्म संवत् 1731 में और मारवाड़वाले दरिया साहब का जन्म संवत् 1733 में हुआ। तब घटरामायण में जो उपर्युक्त रीति से दरिया साहब की चर्चा की गई है, इससे भी साफ तरह से पता चलता है कि घटरामायण, रामचरितमानस से प्रथम नहीं बनी है और इसके रचयिता गोसाईं तुलसीदास जी महाराज (जो रामचरितमानस के बनानेवाले हैं ) नहीं हैं।

भूमिका-08

रामचरितमानस में नवधा भक्ति अत्यन्त उत्तमता से उनकी क्रियाओं के सहित लिखी हुई है और उसमें लिखा है कि नवधा भक्ति के द्वारा सर्व राममय का सर्वोच्च पद प्राप्त होता है। जिस साधन के द्वारा साधक सर्व राममय ( अभेदता) की अपरोक्षानुभूति हो, अर्थात् अभेद पद में गति हो, उसी साधन को अभेद भक्ति का साधन मानना युक्ति-युक्त और परमोचित है। मतलब यह है कि रामचरितमानस को नवधा भक्ति से बाहर घटरामायण की तेरहवीं 'अभेद भक्ति' में कुछ विशेष साधन बच जाता है, ऐसा मानना असत्य और युक्तिविपरीत बात है। इसके अतिरिक्त घटरामायण की और तीन विशेष भक्तियों ( यथा, "भेद भक्ति, अविरल भक्ति और अनुपावन भक्ति") के विषय में विचारने से जान पड़ता है कि ये तीनों रामचरितमानस की नवधा भक्ति के अन्तर्गत हैं; क्योंकि सन्तों का संग करना, कथा-प्रसंग में रत होना, अभिमान छोड़कर गुरु की सेवा करनी, मन्त्र-जप करना और दमशीलता का लाभ करना, ये भक्तियाँ जो नवधा भक्ति के भीतर हैं, भेद भक्ति कहलाती हैं। अविरल भक्ति का अर्थ है गहरी भक्ति वा निश्चल भक्ति। अनुपावन को अनपायनी भी कहते हैं, पर शुद्ध शब्द है 'अनपावनी', इसका अर्थ है दुर्लभ। अतएव अनुपावन भक्ति का अर्थ हुआ दुर्लभ भक्ति वा सदा एकरस रहनेवाली भक्ति । ये दोनों शब्द अविरल और अनुपावन तो 'भक्ति' के प्रथम केवल विशेषण रूप से जोड़े जाते हैं। पर यह नहीं कि 'भक्ति' के प्रथम ऐसे शब्दों को जोड़-जोड़कर भक्ति के साधनों की संख्या बढ़ाई जाती है। यदि ऐसे शब्दों को जोड़-जोड़कर भक्ति के साधनों को बढ़ाया जा सकता हो, तो भक्ति के बहुत-से भेद हो सकते हैं, जैसे अनन्य भक्ति, अकुण्ठा भक्ति, अनुपम भक्ति, पावनी पवित परमाभक्ति, दास्य भक्ति, सख्य भक्ति और वात्सल्य भक्ति इत्यादि जो घटरामायण में नहीं गिनायी गई हैं। इसलिये यह कह सकेंगे कि घटरामायण में सब भक्तियों नहीं बतलायी गई हैं; पर रामचरितमानस में ये सब बतलायी गई हैं। वस्तुत: रामचरितमानस में वर्णित नवधा भक्ति में सदा अत्यन्त रत रहना ही अविरल और अनुपावन भक्ति है, न कि इनके लिये कोई विशेष और भिन्न प्रकार का साधन जाना जाय । इसलिये घटरामायण में तेरह भक्तियों का गिनाना सत्य और युक्ति-संगत बात नहीं जँचती है। श्रीमद्भगवद्गीता में लिखित क्षेत्र (शरीर) और क्षेत्रज्ञ (शरीरी) का विचार किया जाय तो मन क्षेत्र है और राम क्षेत्रज्ञ है, इस हेतु घटरामायण का कथन कि "राम मन है वा मन को राम कहते हैं", बुद्धि-विपरीत बात है। और रामचरितमानस में जब राम की स्तुति इस तरह की गई कि, "विषय-मनोरथ-पुञ्ज-कञ्ज-वन। प्रबल तुषार उदार पार मन ॥ मन समेत जेहि जान न बाणी। तरकि न सकहिं सकल अनुमानी।। ज्ञान गिरा गोतीत अज, माया मन गुन पार ।" इत्यादि। तब जिस पुरुष ने घटरामायण में राम को मन बतलाया था, वही यदि लोक को रिझाने के लिये रामचरितमानस में राम को 'मन पार' अर्थात् मन से परे कहता है, तो उसके ऐसे कहने का विश्वास करना उचित नहीं है और ऐसे कहनेवाले के लिए ठीक वही बात कहनी चाहिये, जो घटरामायण में ऐसे कहनेवाले को उसने स्वयं लिखा है कि, "एक कहै दूजो कहै, दो-दो कहै बनाइ। ये दो मुख का बोलना, चने तमाचे खाइ ॥"

भूमिका-09

घटरामायण में लोमश ऋषि का उनके पिता के मात्र संवाद लिखा हुआ है, पर यह नहीं लिखा है कि यह संवाद घटरामायण के कर्ता ने कहाँ से पाया। इस संवाद में इस तरह को अयुक्त बातें लिखी हुई हैं कि, "एकादशी और रविवार आदि व्रतों को करने का फल लोमश को मक्खी, चील्ह, सूअर और कुत्ता आदि के जन्म मिले, पीपल वक्ष पूजने से वह कनखजूरा हुए, ब्राह्मण-भोजन कराने के फल में उनको बिच्छू होना पड़ा, ठाकुर-पूजा और शिव-पूजा से उनको पत्थर योनि मिली; क्योंकि जिसको वह पूजते थे, उसी में समा जाते थे। ( "अनेक दिवस पाहन कर आसा । अन्त तहाँ पुनि लीनो वासा ॥ ऐसो कहाँ-कहाँ की गाऊं। जेहि पूजौं तेहि माहि समाऊँ ॥" घटरामायण) बहुत दिनों तक डाकुर और शिव को पूजते हुए लोमश ने जो पत्थर को आशा की सो उसने बड़ी भूल की। क्या वह ठाकुर और शिव को पत्थर ही जानता था ? यदि वह ऐसा जानता था तो वह बड़ा अज्ञान था। यदि ठाकुर और शिव की प्रतिमाएँ पत्थर की बनी हुई थीं, तो इस कारण यह आवश्यक नहीं है कि ठाकुर और शिव को उनके पूजक पत्थर ही जाने और वह अपनी आशा पत्थर में ही रक्खे। जैसे कोई अपनी प्रतिमा बनवावे तो उसे देखकर उसको केवल उसके आकार के सदृश अपने आकार का ज्ञान होता है, न कि उसे यह ज्ञान होता है कि जिस धातु की मेरी प्रतिमा है, उसी धातु का मैं भी हूँ । इसी तरह किसी देव की प्रतिमा से केवल उसके रूप का ही ज्ञान होता है, न कि यह माना जाता है कि जिस धातु से देव-प्रतिमा निर्मित है, उसी धातु का देवता भी है। प्रतिमापूजन के द्वारा रूप की उपासना की जाती है। उसके द्वारा आसक्ति और आशा रूप में होनी चाहिये, न कि उस धातु में, जिससे कि प्रतिमा निर्मित है और ऐसी आशा के कारण, "जेहि पूजौं तेहि माँहि समाऊँ ॥" के न्याय से उपास्य रूप में समाना चाहिये, न कि उस धातु में, जिससे कि वह घातु निर्मित है। उपर्युक्त न्याय से पीपल वृक्ष पूजकर पीपल वृक्ष ही होना चाहिये, न कि कनखजूरा ( कनगोजर ) और एकादशी आदि करके ऊपर वणित पशु-पक्षी होने का और ब्राह्मण-भोजन कराने के फल बिच्छू होने का भी कोई युक्त कारण घटरामायण में नहीं बतलाया गया है और न बतलाया जा सकता है। घटरामायण की बातें केवल अयुक्त हैं।

भूमिका-10

श्रीकृष्ण भगवान की निसबत भी अयोग्य और झूठी बातें घटरामायण में लिखी हुई हैं। जैसे उसमें लिखा है कि "कृष्ण ने अर्जुन से महाभारत (महायुद्ध) करवाया। लड़ाई जीतने पर उन्होंने हिंसा का पाप लगाकर उसे अपना पैर तक नहीं छूने दिया, उसको निकाल दिया, पाप कटने के लिये अश्वमेध यज्ञ करने को कहा और जब इस यज्ञ हारा भी उसका पाप नहीं कटा, तब उसको हिमालय में जाकर गलने को कहा। कृष्ण कुटिल और दुष्ट है।" घटरामायण में लिखी उपर्युक्त बातें महाभारत ग्रन्थ में कहीं नहीं लिखी हैं। हाँ, स्वयं युधिष्ठिर को ही ज्ञात हुआ कि आत्मीय-जनों की हिंसा का पाप हमको हुआ और व्यासदेव ने अश्वमेध यज्ञ करने का उन्हें उपदेश दिया था। जब भगवान् कृष्ण ने अपना शरीर छोड़ दिया, तब पाण्डवों को संसार से बड़ी विरक्ति हो गई और वे द्रौपदी को साथ लेकर हिमालय में चले गये। इसलिये घटरामायण की उपर्युक्त बातें झूठी हैं। मन-गढ़न्त और झूठी बातें लिखकर किसी की निन्दा करनी किसी सन्त का काम हो, यह कदापि सम्भव नहीं हैं। दस अवतारों के विषय में घट रामायण बतलाती है कि "अनाम से सत्तनाम दयाल हुआ, और सत्तनाम के सोलह बेटों में से एक, जो सबसे छोटा है, काल निरञ्जन कहलाता है। इसने तप करके सत्तनाम से विनती की। सत्तनाम ने इसको तीन लोकों का राज्य दिया और ज्योति अंश (भगवती) को जोव अंश देकर उसके पास भेजा। निरञ्जन ने ज्योति को ग्रास लिया। सत्तनाम सत्पुरुष ने निरञ्जन को ग्रास लिया कि तुम लाख जीवों की हिंसा नित्य करोगे और दुःखदायी काल होओगे। इसी निरञ्जन काल के दस अवतार होते हैं। इस निरञ्जन और ज्योति दोनों ने मिलकर बहुत जंजाल रचे और सारे विश्व में यमजाल फैलाकर जीवों को फँसा कष्ट दे रखा है। ज्योति ठगनी और निरञ्जन ठग, काल (हिंसक वा दुःखदायी) और लबार है। इसकी भक्ति से जोव का उबार नहीं होगा। अवतारों की भक्ति इसी की भक्ति है। सत्तनाम वा सत्तपुरुष की भक्ति से काल का नाश होता है अर्थात् काल-जाल से जीव मुक्त होकर परम मोक्ष पाता है।" अब उपर्युक्त बातों पर थोड़ा विचार किया जाता है कि सत्तनाम वा सत्तपुरुष दयाल का बेटा दुःखदायी क्यों हुआ? सत्तपुरुष दयाल की मौज से विपरीत कर्म उसने किया, तभी तो उन्होंने उसे शाप दिया। यदि उसके उस कर्म को सत्तपुरुष की मौज के विरुद्ध कर्म न मानें, तो सत्तपुरुष दयाल का उसे शाप देना उनका अन्याय कर्म सिद्ध होगा और शाप देने के कारण तो उन्हें दयाल कहना ही निरर्थक होगा। शाप उन्होंने निरञ्जन को दिया, उसी के प्रभाव से लाखौं जीव नित्य प्रति काल निरञ्जन से सताये जाते हैं। जीव बेचारों ने उस समय कोई पाप और अपराध किया था, सो घट रामायण में लिखा हआ नहीं है। अपराध तो काल निरञ्जन का था, जो त्रिलोकीनाथ बने ही रहे, परन्तु बेचारे निरपराध जीव दुःखदायी काल के हवाले सताये जाने को सौंप दिये गये। अपराध किसका और सताया जाये कौन ? यह न तो न्याय है, न दयालुता। विचार से तो घट रामायण के सत्तनाम सत्तपुरुष को दयाल कहना उचित नहीं जँचता। जो राजा निरीह प्रजा को अन्यायी और दुःखदायी हाकिम को सौंप दे, वह राजा स्वयं ही परम अन्यायी, महाकठोर, महादुःखदायी और अत्यन्त कराल काल माना जायेगा। जैसे मामूली जीव अपनी मर्जी के मुताबिक सन्तान नहीं उत्पन्न कर सकता है, मालूम होता है कि घट रामायण का सत्तनाम सत्तपुरुष उसी तरह अपनी मौज मुताबिक सन्तान नहीं उत्पन्न कर सका, तभी तो उसके बेटे निरञ्जन ने उसकी मर्जी के विरुद्ध ज्योति को ग्रास कर लिया। अपने बेटे के पक्ष में आकर सत्तनाम सत्त पुरुष ने तो उसे त्रिलोकीनाथ बने ही रहने दिया, पर बेचारे जीवों को उसके हाथ सौंपकर परम दुःख में डाल दिया। इसलिये कहना पड़ता है कि पक्षपात करने, अन्याय करने, निरपराध को सताने और अपनी सन्तान अपनी मर्जी के मुताबिक नहीं उत्पन्न करने का दोष घट रामायण के सत्तनाम सत्तपुरुष को लगता है, और जैसे दुःखदायी और काल आदि कहकर घट रामायण में श्रीराम तथा श्रीकृष्ण की भक्ति का निषेध किया गया है और लिखा गया है कि उनसे मुक्ति नहीं मिलती है, उसी प्रकार उपर्युक्त अवगुण सत्तपुरुष में भी रहने के कारण उसकी भक्ति का निषेध होना चाहिये और उसके पास में वा धाम में वा उसके सतलोक वा चौथे पद में (जहाँ वह रहता है) भी मोक्ष मिलेगा, यह विश्वास नहीं करना चाहिये। और घट रामायण की इस चौपाई "वो सतगुरु चौथे पद स्वामी। ताकि भक्ति सन्त सब ठानी।" में वर्णित भक्ति करनेवाले सन्तों की मुक्ति नहीं होगी। घट रामायण में काल निरञ्जन के विषय में लिखा है कि, "जिन पुनि तप कीना बहु ध्याना। सत्तनाम जिन निज कर जाना॥" ऐसा करने पर भी उसमें से काल अंग दूर नहीं हआ। तब घट रामायण की ये बातें कि "सत्तनाम से काल नसाना॥ कोई साधु काया मत जाना॥" तथा, 'चढ़ि करि द्वार देखि सत साहिब शुभ और अशुभ नसाई। जे जे बन्द फन्द कर्मन के सत्ति पुरुष दरसत नसि जाई।" विश्वास करने योग्य बातें नहीं हो सकती हैं। इस तरह की अयुक्त, परस्पर विरोधी और मिथ्या बातें सन्त और सज्जन पुरुष लिखेंगे, विश्वास करने योग्य बातें नहीं हैं।

भूमिका-11

घट रामायण के कर्त्ता ने उसमें अनेक स्थानों पर किसी शरीरधारी सद्गुरु से स्वयं भजन भेद प्राप्त करने का वर्णन किया है; यथा-"लख अगम भेद अलोक आली री, सन्त सतगुरु मोहि कयो। तोनों लोक से री अलोक न्यारा, पार मारग मोहि कह्यो। तीनों लोक से री आलोक न्यारा, पार मारग मोहि दियो॥" "जब बल बिकल दिल देखि बिरहिन गुरु मिलन मारग दई॥" "सतगुरु सुरति लखाइया, दिया जो भेद सुनाइ। पाइ परसि रस बस रही, गई गगन के माहि॥" "तुलसी मैं मति हीन, सन्त चीन्ह मोको दई। भई चरण पद लीन, होइ अधीन अन्दर गई।" "तुलसी तन सैला, घट बिच खेला, सन्त कृपा से राह लई।" "दीनी सतगुरु घट की तारी, चटकी मति फटक फटारी।" "झंझरी पिया झाँकि निहारी, सखी सतगुरु की बलिहारी॥ दीने द्रग सुरति सँबारी। चीन्हा पद पुरुष अपारी॥" "सत संगति गाई, भर्म छुड़ाई, सन्त सहाई राह दई॥" इत्यादि। और घट रामायण में यह भी लिख दिया है कि "कञ्ज गुरु बिधि राह बताई। देह गुरु से कछु नहिं पाई॥" कभी अपना देहधारी गुरु कबूल करना और कभी नहीं, धर्मानुकूल बात है, यह कह नहीं सकते।    

भूमिका-12

घटरामायण में गुरु-शिष्य के विषय में औरों को जो उपदेश दिया गया है और इस विषय में ग्रन्थकर्ता का निज व्यवहार जैसा है, वह भी जानने योग्य है। उसमें लिखा है कि, “नहिं कोई गुरु नहिं कोई चेला। बोले सब में एक अकेला॥ जो कोइ गुरु चेला कर जाना। सोई परे नर्क की खाना॥ एक बोल सब माहिं बिराजा। गुरु चेला सब पेट के काजा॥ चेला होइ नीक बिधि भाई। गुरु होइ चौरासी जाई॥ तुलसी मैं तू जो तजैं, रहै दीन गति सोई। गुरू नवे जो शिष्य को, साध कहावै सोई॥ कहै कबीर सब माहिं विराजूँ। सब मैं किया सबी मैं साजूँ। जो महंत चेला करे भाई। सब में रहा कबीर समाई॥ ए बिधि बिधी कबीर पुकारा। काको चेला करै गँवारा॥ घट घट माहिं कबीर समाना। काको चेला करे हैवाना॥ कहते तुमको लाज न आई। कहौ कबीर फिर गुरू कहाई॥ कहा कबीर सब ठाम ठिकाना। सोइ कबीर का फूको काना*॥" ये सब उपदेश दूसरों को दिये गये। अब ग्रन्थकर्त्ता का स्व-व्यवहार इस विषय में कैसा है, उसे ग्रन्य (घट रामायण) से उद्धृत कर यहाँ रखा जाता है-“पहूंचे काशी नगर के माई। हिरदे सुनत दौड़ि चलि आई॥ आए चरण लीन परसादी। बिधि बिधी रहन कुटी की साधी॥ ए हिरदे है हमरा दासा। सत् संगति बिधि या के पासा॥" "तुलसो रहम राजी हुआ, तोला तकी अपना किया, दिया दस्त दरदी जानकै, तुलसी तकी मुरशदि हुआ।" गुरु-शिष्य के विषय में औरों को जो नसोहत दी गई है, उस पर कुछ विचार लिखा जाता है—जब कोई गुरु-चेला नहीं है, सब में एक ही अकेला वा कबीर है, तब कौन गुरु होकर चौरासी जाएगा, कौन चेला हाकर “नीक बिधि” में बरतेगा और गुरु बनकर चेला को नव वा वन्दगी कर कौन साधु कहावेगा ? वही एक अकेला जो सब में बोलता है, गुरु बनकर चौरासी में जाएगा; चेला बन 'नीक विधि' में बरतेगा और गुरु बनकर चेला रूप अपने ही को नव साधु कहावेगा। ग्रन्थ (घट रामायण) के वर्णनानुसार यही उत्तर ठोक जँचता है। अर्थात् गुरु बनने की हानि जिसको होगी, चेला बनने का लाभ भी उसी को होगा। जो सब शरीरौं में एक ही अकेला बोलनेवाला वा कबीर माने, फिर एक शरीर के बोलनेवाले वा कबीर को गुरु और दूसरे शरीर के बोलनेवाले वा कबीर को चेला कहकर गुरु कर गुरु नर्कगामी और चेला को नीक विधि में बरतनेवाला कहे और चेला बनानेवाले को निर्लज्ज, पेटू, लबार और हैवान कहे, उसकी ऐसी उक्ति युक्तिउक्त और यथार्थ नहीं मानी जा सकती है। अब ग्रंथकर्त्ता का अपना व्यवहार देखिए। इनका शिष्य हिरदे अहीर इनका चरण और परसादी लेता है, ये उसको ‘हमरा दासा’ कहते हैं और ये अपने को तकी मियाँ का मुरशिद (गुरु) जाहिर करते हैं। गुरु-शिष्य सम्बन्धी जो अपशब्द और दोष गुरु बननेवाले के लिए घाट रामायण लिखित हैं, वे अपशब्द और दोष सब गुरु बननेवाले पर लागू हो जाते हैं। अपने शिष्यों से ये नवते थे वा उन्हें ये प्रणाम वा वन्दगी करते थे, सो घट रामायण में कहीं नहीं लिखा है। घट रामायण में जिन लोगों के साथ संवाद लिखा है, वे लोग जबतक ग्रंथकर्त्ता के चेले बने नहीं थे, तबतक तो उन्होंने उनमें से किसी के पैर भी पकड़े और किसी को स्वामी और हजरत आदि भी कहे, पर जब वे उनके शिष्य हो गए, तब उनका पैर पकड़ना और उनको वन्दगी या दंडवत करना तो बहुत दूर रहे, पहले की तरह उन्होंने उन चेलों को स्वामी और हजरत आदि भी न कहा, परंतु उन चेलों ने उनको स्वामी, सतगुरु, पीर और मुरशिद आदि कहा, उन्हें उन चेलों ने प्रणाम किया, उनके साथ अत्यंत नम्रता से वर्ताव किया। चेलों को उन्होंने यह नहीं कहा कि आपलोग मुझको सतगुरु और मुरशिद आदि शब्दों से सम्बोधन नहीं कीजिये और न मुझको प्रणाम कीजिये; क्योंकि मैं और आप गुरु-चेले नहीं हैं। हम सब एक ही अकेले हैं। घट रामायण के कर्त्ता का उपर्युक्त व्यवहार साफ-साफ गुरु बनने का है। पाप से बचते रहकर दूसरों को सिखलाना वा गुरु बनना महापुण्य का काम है। उत्साह और प्रेम से की हुई शिष्य की सेवा को स्वीकार करना, उनको लूटना नहीं है। उनके साथ कपट और चालाकी करके वा उन पर दबाव डालकर सेवा लेने का तरीका अख़्तियार करना, उनको लूटना है। जो किसी को सिखलाने का काम करता है, वह अपने को गुरु बनाता है। गुरु-शिष्य की तोड़ डालने से संसार में विद्याओं की शिक्षा बंद हो जाएगी और जगत की सबसे बड़ी हानि होगी।

भूमिका-13

घट रामायण में लिखा है कि “काशी कबीर चौरा के महन्थ फूल दासजी और उनके शिष्य रेती (रेवती) दासजी से तुलसीदासजी का संवाद हुआ। ये दोनों गुरु-शिष्य अन्त में गोसाईंजी से कायल और प्रभावित होकर उनके शिष्य बन गये और दोनों ने उनकी बड़ी तारीफ़ें कीं और वे दोनों अनाम पद तक पहुंचे। फूल दास ने महन्थी स्वयं छोड़ दी और रेती दास को दे दी। अपनी पारी में रेतो दास ने महन्थी महन्थी छोड़ी और उसे अपने गुरुभाई मङ्गल दास के हवाले किया; जिसने महन्थ बनकर महन्थी चलायी।” कबीरचौरा काशी में कबीर साहब से लेकर अबतक जितने महन्थ हुए हैं, उनकी शुभ नामावली लिखी हुई है। इस नामावली को कबीरपन्थी लोग 'गुरु-प्रणाली' कहते हैं । यह ( गुरुप्रणाली ) 'गुरु माहात्म्य ज्ञान' नाम्नी पुस्तिका की आदि में लिखी हुई है। उसमें फूल दास, रेती दास और मङ्गल दास के नाम नहीं मिलते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि काशी कबीर चौरा में—फूल दास, रेती दास और मङ्गल दास एक के बाद दूसरे महन्थ कदापि नहीं हुए हैं। अतएव घट रामायण में लिखित उपर्युक्त संवाद मानने योग्य नहीं है। इस संवाद के नमूने से मुझे जान पड़ता है कि घट रामायण में जितने संवाद लिखे हुए हैं, सब-के-सब में जो नामावली है, सो अपने विचार के प्रचार के लिये अपनी ओर से लेखक ने लिखा है। जान पड़ता है कि ग्रन्थकर्त्ता अपनी वा अपने गुरु की प्रशंसा लिखकर प्रकट करने की इच्छा रखता था।

भूमिका-14

अब इस बात का विचार किया जाता है कि घट रामायण को किसने और कब बनायी । घट रामायण कर्ता ने इसके बनने का संवत् १६१८ लिखा है। परन्तु मैं सिद्ध कर चुका हूँ कि यह पुस्तक गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज कृत रामायण (जो संवत् १६३१ में बनी है ) के पीछे बनी है। इसलिये मैं निःसन्देह रूप से मानता हूँ कि यह पुस्तक संवत् १६१८ के पीछे बनी है और इस कारण से कि इसमें अपनी बातों की पुष्टि के हेतु दरिया साहब की चर्चा है और उनका शब्द प्रमाण-रूप में दिया गया है, यह संवत् १६८० अर्थात् गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज के परलोक गमन के बहुत पीछे बनी है। जिसमें यह गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज की बनायी हुई और रामचरितमानस के पहले की बनी हई जानी जाए । इसलिये इसके बनने का संवत् १६१८ घट रामायण के बनानेवाले ने झूठ ही लिख दिया है । गुरु नानक साहब कब हए, नव नाथ, चौरासी सिद्ध और गोरखनाथजी कब हुए, पलक राम नानक पंथी के संवाद में तो घट रामायण के कर्त्ता ने स्वयं इसका साल संवत् के निर्णय से समय की बड़ी जांच-पड़ताल की है और उपर्युक्त महात्माओं को गुरु नानक साहब के समकालीन नहों ठहर सकने के कारण उनका उन महात्माओं से सदेह संवाद नहीं माना है; पर यह अपने ग्रन्थ घट रामायण बनने के संवत् बताने की पारी में लोगों की आंखों में धूल झोंकने की इच्छा से लिख डाला कि, चौ०—" संवत् सोलह से अठारा । घटरामायण कीन पसारा ॥" न मालूम कि इसको दोनों दरिया साहबान की जानकारी थी या नहीं थी । इसे यह भी सोह (चेत ) न रहा कि जब इसमें सात कांड रामायण की नवधा भक्ति और कागभुशुण्डि की बातों की चर्चा करता हूँ, तब यह सात काण्ड रामायण (रामचरितमानस) से प्रथम बनी हुई नहीं साबित हो सकेगी। वेलवेडियर प्रेस के मालिक और सन्तवाणी पुस्तक माला के सम्पादक राय बहादुर बाबू बालेश्वर प्रसाद साहब इलाहाबादीजी ने तो इसके बनने के संवत् की चर्चा ही नहीं की है। परन्तु वे अपने प्रेस में अपनी छापी हुई घट रामायण के प्रथम भाग के आरम्भ में अपनी लिखित 'तुलसी साहब (हाथरस वाले) की जीवनी' में लिखते हैं कि "तुलसी साहब ने निःसन्देह घट रामायण के अन्त में फरमाया है कि पूर्व जन्म में आप ही गोसाईं तुलसीदास के चोले में थे, तब घटरामायण को रचा, परन्तु चारों ओर से पण्डितों, भेषों और सर्व मतवालों का भारी विरोध देखकर उस ग्रंथ को गुप्त कर दिया और दूसरी सगुण रामायण उसकी जगह समयानुसार बना दी। इससे यह नतीजा साफ तौर पर निकलता है कि घट रामायण को तुलसी साहब ने जब दूसरा चोला (अनुमानतः १४० वर्ष पीछे ) धारण किया, तब प्रगट किया, न कि पहिले चोले से।" उपर्युक्त सम्पादक महोदयजी के उपर्युक्त लेख से ज्ञात होता है कि ये घट रामायण को गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज (सात काण्ड रामायण के कर्त्ता) की बनाई हुई मानते हैं। परन्तु यह मानना इनकी भूल है; क्योंकि इसका कारण मैं पहले व्यक्त कर आया हूँ। ग्रंथ को गुप्त करने के बाद फिर उसे किसने प्रकट किया, सो घट रामायण में कहीं लिखा हुआ नहीं है। उसमें यह भी कहीं नहीं लिखा है कि मैं अपने पहले जन्म की कथा कहता हूँ, जिससे यह जाना जाये कि इस बात के कहनेवाले ने अपने पहले जन्म में घट रामायण बनायी थी। घट रामायण के अन्त में लिखा है कि "अब कहूँ अन्त समय अस्थाना। देह तजी बिधि कहूँ बिधाना ॥ दो०-संवत सोलह सै असी, नदी बरन के तीर । सावन सुक्ला सप्तमी, तुलसी तजा शरीर ।। इस बयान पर यदि कोई यह अनुमान करे कि कोई ऐसा नहीं कह सकता कि मैं अमुक मिति को मर गया, इसलिये उपर्युक्त बयान से यही जानना चाहिये कि मौत की बात बतलानेवाले ने अपने पहले जन्म की मौत की बात कही है। इस अनुमान पर एक बात यह कही जा सकती है कि यदि ग्रंथकर्त्ता को अपने पहले जन्म की कथा कहनी थी, तो उसे चाहिये था कि वह इस बात को साफ तरह से कथा के आरम्भ में ही कहता कि मैं अपने पहले जन्म की कथा कहता हूँ । और यदि भारम्भ में उसने ऐसा नहीं बतलाया, तो ग्रंथ में कहीं भी ऐसा साफ तरह से बतलाता । दूसरी बात यह है कि यदि उसने पहले जन्म में घट रामायण बनायी, तो उसमें उस जन्म में उसने यह नहीं लिखा होगा कि मैंने सावन शुक्ला सप्तमी संवत् १६८० को शरीर छोड़ा । यह उसने अपने दूसरे जन्म में ही लिखा होगा। तब यह भी सम्भव है कि घट रामायण को उसने अपने दूसरे जन्म में और बढ़ाया होगा । इसलिये कुछ लोगों का ख्याल है कि घट रामायण में जहाँ भक्ति का वर्णन समाप्त होता है, वहीं ग्रन्थ की समाप्ति है । उसके बाद ग्रन्थ के कथित अंश के चार गुने से भी अधिक वर्णन जो और उसमें शामिल है, जिसमें हाल काशीजी का, जीवन चरित्र गोसाईंजी महाराज का और सब संवाद लिखे हैं, उसमें पीछे से जोड़ा गया है । अतएव वर्त्तमान घट रामायण का यह वर्णित बृहदांश क्षेपक है और प्रथम वर्णित स्वल्पांश ही मूल है, जो संवत् १६१८ का बना हुआ और गोस्वामी तुलसीदासजी कृत है। परन्तु यह विचार भी माना नहीं जा सकता; क्योंकि घट रामायण बनने का संवत १६१८ और कर्त्ता गो० तुलसी दाम जी महाराज होने के जिन सब खण्डन करनेवाले कारणों का मैं पहले वर्णन कर चुका हूँ, वे सब कारण कथित क्षेपकांश के प्रथम भी घट रामायण में पाये जाते हैं । इसलिये वेलवेडियर प्रेस के उक्त स्वामी महोदयजी का यह विश्वास कि घट रामायण के कर्त्ता गो० तुलसीदास जी हैं, भूल है । तीसरी बात यह है कि भूल ही के कारण रामचरितमानस और दरिया साहब की साक्षी दे दी है । इसलिये उपर्युक्त प्रकार से गो० तुलसीदासजी का स्वर्गवास होना लिखा जानकर यह मान लेना कि स्वयं गो० तुलसीदासजी ने अपने दूसरे जन्म में अपने पूर्व जन्म का अन्त समय लिखा है, युक्ति-संगत बात नहीं है । यदि उल्लिखित कारण से तुलसी साहब (हाथरसवाले) को पूर्व जन्म में गो० तुलसीदासजी महाराज मान लिया जाये और यह भी सिद्ध हो जाये कि गो० तुलसीदासजी महाराज सम्बन्धी घट रामायण की सब बातें सत्य हैं, तो उपर्युक्त बात का मानना सार्थक हो सकता है । पर इसे मान लेने पर भी जब गो० तुलसीदासजी महाराज सम्बन्धी घट रामायण की और सब बातें सत्य नहीं सिद्ध होती हैं, तब इसे मानना भी ठीक नहीं। उपर्युक्त कारणों से घट रामायण गो० तुलसीदासजी महाराज कृत और संवत् १६१८ की बनी हुई किसी तरह भी मानने योग्य नहीं है । ज्येष्ठ शुक्ला द्वितीया को प्रति वर्ष शहर हाथरस में तुलसी साहब के मन्दिर में उनका (तुलसी साहब) का भण्डारा होता है । संवत् १९९१, सन् १९३४ ई० के इस अवसर पर मैं वहाँ जिला पूर्णियाँ, ग्राम भंगहा निवासी श्री बाबू कालाचन्द साहजी और उक्त जिले के ही ग्राम मोरसण्डा निवासी गोसाईं हरंगी दासजी को संग लिये, जा पहुँचा । देखा कि तुलसी साहब के समाधि मन्दिर में एक चौकी पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखी हुई घट रामायण रखी हुई है। इसके अन्त में मनोहर दास का दस्तखत है और पुस्तक की लिखाई को समाप्ति को मिति चैत्र बदी ६ सोमवार संवत् १९२१ लिखी हुई है । मतलब यह कि घट रामायण की यह प्रति तुलसी साहब के चोला छोड़ने के लगभग २० ही वर्ष पीछे लिखी गयी है । मैं अपने साथ में बाबा देवी साहब की छपायी घट रामायण और वेलवेडियर प्रेस को छपी घट रामायण, दोनों लेता गया था। इनको मैंने और बाबू काला चन्द साहजी ने समाधि-भवन में रखी उक्त घट रामायण से मिलायी । बाबा देवी साहब की छपायी घट रामायण में जहाँ-जहाँ 'प्रश्न गोसाईं जी महाराज' वा 'बाच गोसाईं जी महाराज' लिखा हुआ है, तहाँ-तहाँ वेलवेडियर प्रेस की छपी घट रामायण में 'प्रश्न तुलसी साहब' वा 'वचन तुलसी साहब' लिखा हुआ है । और उक्त समाधि-भवन में रखी हुई घट रामायण में भी उन स्थलों पर 'गोसाईं जी महाराज' वा 'तुलसी दास' लिखा हुआ है, न कि तुलसी साहब। और घट रामायण के पद से भी यही ज्ञात होता है कि लोग घट रामायण के तुलसीजी को साहब कहकर नहीं पुकारते थे, बल्कि गोसाईं कहकर पुकारते थे। जैसे-"तुलसी तुल जाई गुरु पद कञ्ज लखाई। मैं गरीब कछु गुन नहिं पाई मोको कहत गुसाईं ॥" घट रामायण में जहाँ पर गोसाईं जी के जीवन चरित्र का आरम्भ किया गया है, वहाँ वेलवेडियर प्रेस की छपी घट रामायण में बड़े-बड़े अक्षरों के शीर्षक में ‘तुलसी साहब के पूर्व जन्म का हाल’ लिखा है। परन्तु यह शीर्षक हाथरस के समाधि-मन्दिर की घट रामायण में नहीं लिखा हुआ है । वेलवेडियर प्रेस छपी घटरामायण को पढ़ने से ज्ञात होता है कि उसमें वर्णित सब संवाद तुलसी साहब और इन लोगों के बीच हुए, जिन लोगों के नाम घट रामायण में दिये हुए हैं । पर हाथरस की उक्त घट रामायण को और बाबा देवी साहब की छपवायी घट रामायण को पढ़ने से ज्ञात होता है कि सब संवाद गोसाईं तुलसी दासजी महाराज के साथ उन लोगों का हुआ है, जिनका नाम घटरामायण में लिखा हआ है । घट रामायण में लिखा है कि संवत् १६१५ में गोसाईं जी (तुलसीदासजी) अपने गाँव राजापुर से काशी पहुँचे । संवत् १६१६ में काशी के रहनेवाले एक नानक शाही सन्त गोसाईं जी से मिलने को आये । गोसाईं जी से उनका संवाद हुआ, उससे वह सुखी होकर अपने स्थान पर चले गये । ("सोला* सैं सोला में सोई । कार्तिक बदी पञ्चमी होई ॥ आये पलक राम एक सन्ती। रहे काशी में नानक पन्थी॥") घट रामायण में संवाद का सिलसिला इस तरह लिखा है—पहला संवाद तकी मियाँ का, दूसरा जैनियों का, तीसरा पण्डितों का, चौथा मानगिरी संन्यासी का, पाँचवाँ फूल दास कबीरपन्थी का, छठा रेती दास कबीरपन्थी का, सातवाँ मुसलमान साधु अली मियाँ का, आठवाँ गुनवाँ का, नवाँ प्रिय लाल का, दसवाँ पलकराम नानकपन्थी का और ग्यारहवाँ गुपाल गोसाईं कबीरपन्थी का है। जिस क्रम से सब संवाद लिखे हुए हैं, उससे बोध होता है कि पलकराम नानकपन्थी से गोसाईं जी के संवाद होने के पूर्व ही उनका संवाद गुपाल गोसाईं के अतिरिक्त वर्णित अन्य लोगों से हुआ । तुलसी साहब विक्रम संवत् की १९वीं शताब्दी में जन्मे थे, इसलिये उनके साथ उपर्युक्त लोगों का (जो १७वीं शताब्दी में थे) संवाद लिखना रायबहादुर बाबू बालेश्वर प्रसाद साहब इलाहाबादीजी की नितान्त भूल है । घटरामायण के पढ़ने से यह भी विदित होता है कि जितने संवाद उसमें लिखे हुए हैं, वे सब-के-सब काशी में हुए और जिस हिरदे अहीर ने गोसाईंजी की कुटी काशीजी में संवत् १६१५ में बनायी थी, उसो के समय में हुए; क्योंकि संवदारम्भ में काशी के पण्डित इत्यादि उसको संग लेकर गोसाईं जी के पास आये थे और संवादों में जहाँ-तहाँ उस (हिरदे) की चर्चा इस तरह होती चली आयी है कि कहीं स्वयं गोसाईंजी हिरदे से कुछ कहते हैं वा कहीं गोसाईं जी से कुछ हिरदे कहता है । इसलिये घट रामायण के अनुसार यह किसी तरह भी मानने योग्य नहीं है कि उसमें वर्णित कोई भी संवाद तुलसी साहब हाथरसवाले के साथ हुआ । अब देखना चाहिये कि घट रामायण के बनानेवाले तुलसी साहब हो सकते हैं या नहीं । घट रामायण में लिखी अनेक अयुक्त, झूठ एवं आत्मश्लाघापूर्ण अधार्मिक बातों के होने से उसके रचयिता सच्चे सन्त हैं, सो कभी नहीं माना जा सकता है । फिर घट रामायण के बनने का समय विक्रम संवत् की १७वीं शताब्दी होने के कारण उसके रचयिता, तुलसी साहब, जिनका जन्म विक्रम संवत् की १९वीं शताब्दी में है, नहीं मानने योग्य है । पर जिनका स्थान और समाधि शहर हाथरस में विद्यमान है और जिनका अन्त समय विक्रम संवत् १९०० में हुआ है, वह तुलसी साहब विक्रम संवत् की १९वीं शताब्दी में अवश्य थे। और घट रामायण ग्रन्थ का मूल यही स्थान माना जाता है और लोगों को घट रामायण पहले इसी स्थान से वा इसी स्थान के साधु से मिली है । तब यही मानना पड़ता है कि घट रामायण के बनानेवाले तुलसी साहब के एक वा कई अनुयायी अवश्य होंगे; और तुलसी साहब के चोला छोड़ने पर ही यह पुस्तक बनी होगी । पर यदि तुलसी साहब केवल नामधारी सन्त हों, सच्चे सन्त नहीं हों, तो यह उन्हीं की बनायी हो, इसमें कुछ संशय नहीं । मुझे तुलसी साहब के जाननेवाले जितने लोगों से साक्षात्कार हुआ है, उन सबों से मैंने यही सुना है कि तुलसी साहब परम सन्त थे । शहर इलाहाबाद, महल्ला अतरसुइया के रहनेवाले वृद्ध महानुभाव बाबू माधव प्रसाद साहब (जो राधास्वामी मत का सत्संग नित्य अपने यहाँ कराते हैं और जिनको राधास्वामी मत के बहुत-से लोग सन्त सतगुरु मानते हैं ) के पास मैं १३-६-१९३४ ई० को गया था । इनसे ज्ञात हुआ कि यह महानुभाव 'सुरत विलास' ग्रन्थ की निसबत कुछ नहीं जानते हैं, पर यह तुलसी साहब को निश्चय ही पूर्ण सन्त मानते हैं। मैं हाथरस की अपनी यात्रा के विषय में पहले लिख चुका हूँ । उसी यात्रा में उपर्युक्त वृद्ध महानुभाव का साक्षात्कार लाभ मैंने किया था । मेरे जानने में ऐसा कोई विशेष कारण नहीं है, जिससे मैं निश्चयपूर्वक कह सकूँ कि तुलसी साहब सच्चे सन्त नहीं थे । इसलिये मैं घट रामायण का कर्त्ता मानकर उनको उन दोषों का दोषी ठहराने में पाप समझता हूँ, जिन दोषों का दोषी घट रामायण के कर्त्ता निश्चय ही ठहरेंगे। घट रामायण में कहीं न राम की स्तुति है और न राम-भक्ति का आदर, पर राम की निन्दा और राम-भक्ति का निषेध अवश्य है । हाँ, इसमें अनाम, सत्तनाम, राम और सब कुछ जो बाहरी ब्रह्माण्ड में है, सो भीतरी पिण्ड वा घट में भी है, ऐसा वर्णन किया गया है । और इसमें अनाम, सत्तनाम, साधु, सन्त और संत सतगुरु की स्तुति और इनकी सेवा-भक्ति के आदर और घट के (अन्तरी) भेद का वर्णन है । तब इसका नाम जो घटरामायण रखा गया है, सो भो एक प्रकार का छल-सा ज्ञात होता है । जान पड़ता है कि राम-विरोधी पुस्तक का नाम छल और चालाकी से घट रामायण इसलिये रखा गया है कि रामायण शब्द से राम को सर्वेश्वर माननेवालों को और रामभक्तों को, आकर्षित कर घट रामायण पढ़ने में लगाकर, उन्हें रामभक्ति से विमुख किया जाये । इस प्रकार का छलमय व्यवहार धर्मात्मा सन्त पुरुष का हो, यह सम्भव नहीं है । रायबहादुर बाबू बालेश्वर प्रसाद साहब अपने वेलवेडियर प्रेस में छपी घट रामायण में तुलसी साहब का जन्म संवत् १८२० के लगभग और उनकी मृत्यु संवत् १८९९ या संवत् १९०० में बतलाते हैं और तुलसी साहब की जीवनी में वह यह भी बतलाते हैं कि "दो—प्रामाणिक सत्संगी अबतक मोजूद हैं, जिन्होंने अपने लड़कपन में तुलसी साहब के दर्शन किये थे और उनमें से एक को तुलसी साहब ने अपनो घट रामायण दिखलायी थी ।" तुलसी साहब की 'रत्नसागर' नामक पुस्तक में जिसे घटरामायण छापने के पहले ही उपर्युक्त राय बहादुर साहब ने प्रेस में छापी थी, वह तुलसी साहब का जन्म संवत् १८४५ और मृत्यु संवत् १९०५ या दो-एक वर्ष आगे-पीछे ठहराते हैं और लिखते हैं कि "बाल अवस्था ही में इनको (तुलसी साहब को) ऐसा तीव्र वैराग्य और प्रचण्ड भक्ति प्राप्त हुई कि घर-बार छोड़कर भेष ले लिया ।" उन्होंने (राय बहादुर बाबू बालेश्वर प्रसाद साहब ने) इस पुस्तक में तुलसी साहब के युवराज और महाराष्ट्री होने की चर्चा नहीं की है, पर घट रामायण में तुलसी साहब की जीवनी लिखकर उन्होंने इसकी अच्छी चर्चा की है । फिर घट रामायण में वे लिखते हैं कि "युवावस्था में आपने (तुलसी साहब ने) घर छोड़ा था । विचारने की बात है कि उन्होंने 'रत्नसागर' में तुलसी साहब के गह-त्याग की बात एवं जन्म और शरीर-त्याग की बातें जिस प्रामाणिक आधार पर लिखी हैं, घट रामायण छापते समय उन प्रमाणों का विश्वास न कर 'सुरत विलास' की प्रामाणिकता पर भरोसा किया और तदनुसार तुलसी साहब को युवराज एवं महाराष्ट्री होना माना । परन्तु 'सुरत विलास' की बातें प्रामाणिक ऐतिहासिक प्रन्थों के अनुसार कुछ भी विश्वास करने योग्य नहीं है । फिर देखिये आप (उपर्युक्त राय बहादुर साहब) घट रामायण के तुलसी साहब के जीवन-चरित्र में लिखते हैं कि "तुलसी साहब ने घट रामायण में लिखा है कि आपही गोसाईं तुलसीदासजी रामायण के ग्रंथकर्त्ता के चोले में थे ।" परन्तु घट रामायण पढ़कर देखिये, उसमें ऐसी बात नहीं लिखी है । फिर उक्त राय बहादुर साहब ने 'रत्न-सागर' के तुलसी साहब के जीवन-चरित्र में यह लिखा है कि "तुलसी साहब की घट रामायण उनके मत के आचार्य देवी साहब छाप चुके हैं ।" बाबा देवी साहब को तुलसी साहब के मत का आचार्य कहना भी इनका पूर्ण असत्य है; क्योंकि मैं १९०९ ई० में बाबा देवी साहब के सत्संग का सत्संगी बना, परन्तु आजतक मैंने यह नहीं जाना कि बाबा देवी साहब तुलसी साहब के मत के आचार्य थे । तुलसी साहब के बाद उनके मत के जितने आचार्य हुए हैं और हैं, उनकी तालिका मेंने इस पुस्तक के अन्त में दे दी है । बाबा देवी साहब तुलसी साहब से न तो भजन-भेद लिये थे और न उनके शब्द-योग का ख्याल; तुलसी साहब के इस योग के ख्याल से मिलता है। अतएव जो कोई बाबा देवी साहब को तुलसी साहब के मत का आचार्य कहते हैं वा उन्हें उनका परम शिष्य मानते हैं, वे कपोल कल्पित बातें कहते हैं । ऐसी मनगढ़ंत बातें लिखने के कारण उपर्युक्त राय बहादुर बाबू बालेश्वर प्रसाद साहब की यह बात भी कैसे मानी जाये कि तुलसी साहब ने अपनो बनायी घट रामायण एक प्रामाणिक सत्संगी महाशय को दिखायी थी । कदाचित् तुलसी साहब को घट रामायण का कर्त्ता मान लिया जाये, तो घट रामायण की ऊटपटांग रचना के कारण वे सच्चे सन्त नहीं माने जा सकते हैं । इस दोष से उन्हें बचाने के लिये एक ही उपाय हो सकता है कि यह मान लिया जाये कि तुलसी साहब ने अपनी मौज से जबतब अन्तरी भेद को उत्तम वाणियाँ कही हों और उनके अनुयायियों ने उन्हें संग्रह कर उनमें अपनी ओर से मनमानी बातें मिला, तुलसी साहब के पीछे एक पुस्तक बनाकर उसका नाम घट रामायण रखा हो । घट रामायण में लिखे कुछ पद्यों को पढ़ने से झलकता है कि वे तुलसी साहब के लिखे हैं; परन्तु विचार करने से जान पड़ता है कि यह बात असत्य है-उनके नाम पर किसी दूसरे ने लिखा है । उदाहरण, सोरठा—"तुलसी देखि बिहाल, तुरत निहाल तापर भये । सुरति सैल में डाल, तब उनकी संशय गई ॥" यदि तुलसी साहब को इस सोरठे का रचयिता माना जाये तो 'भये' के स्थान पर 'भयऊँ' लिखना चाहिये था। पुनः, दो०—"नारि दीन तुलसी लखी, बोले बचन रसाल । दीन हीन जेहि देखि कर, दरशन दिये बिशाल ॥" यदि स्वयं तुलसी साहब ही इस दोहे के रचयिता होते, तो ‘दिये’ की जगह ‘दिएऊँ’ वा ‘दिया’ लिखते । और वह अपने से यह नहीं लिखते कि मैंने विशाल दर्शन दिया; क्योंकि अपने से अपने लिये ऐसा लिखना आत्मश्लाघा है । पुनः, सोरठा—“तकी तका निज खेल, मुरशिद तुलसी सौ कहे । यह बिधि कीनी सैल, जो अदबुद अन्दर लषा ॥" जब शिष्य तकी अपने गुरु तुलसी साहब से कुछ बयान करता है, तो स्वयं गुरु तुलसी साहब उस बात को इस तरह लिखें (जैसा सोरठा है), सम्भव नहीं । इस पद्य से भी यही लक्षित होता है कि इसके कर्त्ता तुलसी साहब नहीं हैं । पुनः, “फूल दास बिनती करै, तुलसी स्वामी साथ ।” इसका लेखक भी तुलसी साहब को मानने से उन पर आत्मश्लाघा दोष आता है । पुनः, “आज्ञा स्वामी दीन बनाई । तब गुनवाँ मारग को जाई ॥" यहाँ स्वामी शब्द तुलसी साहब के लिये माना जायेगा और गुनवाँ हिरदे अहीर का बेटा उनका शिष्य है । इस पद से भी यही ध्वनि होती है कि इसके लेखक तुलसी साहब नहीं हैं, कोई दूसरा है। पुनः, त्रोटक छन्द—“नहिं आना जाना, कर्म नसाना, तुलसी सतगुरु राह दई ।" यह इस छन्द की नौवीं कड़ी है। इस छन्द में कुल तेरह कड़ियाँ लिखी हैं । तेरहवीं कड़ी में भी भनिता के लिये ‘तुलसी’ शब्द आया जान पड़ता है। छन्द का सारांश है कि तुलसी साहब के तेरह शिष्य भव पार हो गये । उपर्युक्त नवीं कड़ी का अर्थ है कि उनका (शिष्यों का) कर्म नाश हो गया, उनको आना-जाना वा जनमना-मरना नहीं रहा, उनको सतगुरु तुलसी ने रास्ता दिया। इस छन्द को तुलसी साहब का बनाया मानना ठीक नहीं, इससे उन्हें आत्म-प्रशंसा का भारी दोष लगता है । अतएव यह भी किसी दूसरे का लिखा है। इस प्रकार के और कितने पद्य घट रामायण में हैं, जिनके पढ़ने से स्पष्ट बोध होता है कि इस ग्रन्य में तुलसी साहब के अतिरिक्त ऐसे अन्य व्यक्ति के लिखे पद्य हैं, जो तुलसी साहब को ऊँची दृष्टि से देखनेवाला उनका भक्त है । अतएव घट रामायण बनने का समय और उसके रचयिता के विषय में मैंने जो विचार दिया है, उसमें संशय नहीं रहता है । तब यदि प्रश्न हो कि ग्रंथकर्त्ता ने ग्रंथ में अपने नाम के बदले गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज का नाम क्यों दिया, तो उत्तर हो सकता है कि गोस्वामी जी महाराज के नाम से लोगों को उस पर विश्वास होगा ।

भूमिका-15

तुलसी साहब के समाधि-मन्दिर हाथरस में रक्खी घटरामायण से उन दोनों घटरामायणों को, जो बाबा देवी साहब की छपवायी और रायबहादुर बाबू बालेश्वर प्रसाद साहब की छापी हुई हैं, मैंने और बाबू कालाचन्द जी ने मिलान करके देखा है, इसकी चर्चा मैं पहले कर चुका हूँ। इस विषय में थोड़ा-सा यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि उल्लिखित हाथरस की घटरामायण से जितना अनमेल बाबा देवी साहब की छपवाई घटरामायण में है, उतना अनमेल उपयुक्त रायबहादुर साहब की छापी घटरामायण में नहीं है । पर इससे यह नहीं माना जा सकता है कि रायबहादुर साहब की छापी घटरामायण में केवल तुलसी साहब की निर्मित अछूती वाणी है, क्षेपक नहीं है। मेरे विचार से उसमें तुलसी साहब की निर्मित अछूती वाणी स्वल्प मात्र और विशेषांश क्षेपक ही हैं। यही हाल सब हस्तलिखित और बाबा देवी साहब की छपवायी घटरामायणों का है। मेरी संगृहीत घटरामायण की पदावली के जो शब्द बाबा देवी साहब की छपवायी घटरामायण में न मिलें, उन्हें वेलवेडियर प्रेस में छापी घटरामायण में आप पावेंगे, और जो उसमें भी न मिले, उन्हें हाथरसवाली हस्तलिखित उपर्युक्त घटरामायण में पावेंगे। घटरामायण में लिखा है:

"कहै तुलसी तुम सुनियो काना।
सन्त शब्द का करौं बखाना ॥
दादू मीरा नाभा भाई।
नानक दरिया सूर सुनाई ।।
अरु कबीर पुनि भाखा भाई।
और अनेक सन्त बिधि गाई ॥
दो०-सन्त शब्द बिधि बिधि कहौं , सुनियो फूला दास ।
जो जो शब्द उन भाखिया, कहौं चरन होइ दास ॥"

ऐसा कहकर पहले ३१ जोड़े पद्यों का एक बहुत बड़ा शब्द निज तुलसी दास जी का ही घटरामायणकर्ता ने लिखा है। जो तुलसीदास कहें कि मैं सन्तों का शब्द कहता हूँ, वह पहले अपना ही शब्द कह डालें, युत्ति-संगत बात नहीं लगती है।* फिर जिनके-जिनके जो-जो शब्द उसमें लिखे हुए हैं, वे शब्द यथार्थतः उन्हीं-उन्हीं के हैं, इसमें भी मुझे परम सन्देह है।** मेरे विचार से घटरामायण से तुलसी साहब को कुछ-न-कुछ सम्बन्ध अवश्य है, जैसा कि मैं ऊपर दिखला चुका हूँ। इसलिये, मैं आवश्यक जानता हूँ कि पाठकों को यह जानकारी हो जाय कि तुलसी साहब की जीवनी के सम्बन्ध में उक्त रायबहादुर साहब इलाहाबादी जी ने जो कुछ बतलाया है, वह कहाँ तक सत्य मानने योग्य है।

* इससे भी जानना चाहिए कि घटरामायण तुलसी दास नामी किसी संत की बनाई हुई नहीं है।
** घटरामायण में लिखित, गुरु नानक साहब का शब्द और सूरदास जी का शब्द गुरु ग्रंथ साहब, गुरु नानक की प्राण संगली और सूरसागर में नहीं है। इन शब्दों को घटरामायण में उस स्थान पर देखना चाहिए, जहाँ से ऊपर लिखित चौपाई और दोहे प्रस्तुत किए गए हैं।

भूमिका-16

राय बहादुर साहब ने ‘सुरत विलास’ ग्रंथ से लेकर घट रामायण में तुलसी साहब की जीवनी छापी है, उनके लेख से ऐसा ज्ञात होता है। परन्तु ‘सुरत विलास’ नामक ग्रंथ बहुत ढूँढ़ने से भी मुझे नहीं मिला। सन् 1934 ई0 में हाथरस में तुलसी साहब के मंदिर में मैं गया और वहाँ के पूज्यमान महन्त ध्यान दास साहब से पूछने पर उत्तर मिला कि- “ तुलसी साहब की जीवनी से संबंध रखनेवाला ‘सुरत विलास’ नामक ग्रंथ न तो इस मंदिर में है और न किसी दूसरे स्थान में मैंने देखा है।” यह तो मैं ऊपर कह चुका हूँ कि महानुभाव बाबू माधव प्रसाद साहब इलाहाबादीजी को इस ग्रंथ के होने की जानकारी नहीं है। वेलवेडियर प्रेस में भी तलाश करने पर मुझे यह ग्रंथ नहीं मिला। यदि इस ग्रंथ का होना मान भी लिया जाय, तो उसके आधार पर घट रामायण में तुलसी साहब की जीवनी में उपर्युक्त राय बहादुर साहब द्वारा लिखित कुछ बातें जो नीचे लिखी जाती हैं, ऐतिहासिक ग्रंथ से नहीं मिलने के कारण सत्य नहीं जान पड़तीं। वे लिखते हैं कि तुलसी साहब जाति के दक्षिणी ब्राह्मण राजा पूना के युवराज यानी बड़े बेटे थे, इनका नाम उनके पिता ने श्याम राव रखा था। तुलसी साहब के पिता भी बड़े भक्त थे। तुलसी साहब को युवावस्था में जब एक पुत्र हुआ और इनके पिता इनको राजगद्दी देने लगे, तब यह घर से निकल गए और गृहस्थाश्रम त्यागी हो गए। घर से इनके निकल जाने पर और इनका पता न पाने पर इनके पिता ने अपने छोटे कुँवर अर्थात् तुलसी साहब के छोटे भाई बाजीराव को गद्दी पर बैठाया और स्वयं राज्य को त्याग किया। राजा बाजीराव से तुलसी साहब एक बार बिठूर (जिला कानपुर) में मिले थे, जहाँ सम्वत् 1876 में गद्दी से उतारे जाने पर बाजीराव भेज दिये गये थे। अब इसमें इतिहास का प्रमाण देखिये-अध्यापक श्रीगोपाल दामोदर तामसकर (महाराष्ट्र) एम0 ए0 एल0 टी0 (M.A.L.T.) लिखित ‘मराठों का उत्थान और पतन’ नामक पुस्तक में से उपर्युक्त बाजीराव तथा उसके पिता और भाई से संबंध रखनेवाली बातें नीचे लिखी जाती हैं-प्रथम बात यह है कि पूना में कोई राजा नहीं रहता था; बल्कि छत्रपति शिवाजी राव के वंश के राजाओं का पेशवा (प्रधान) रहता था। पेशवा को राजा की ओर से मराठा राज्य के समस्त अधिकार मिले थे, पर वह राजा नहीं पेशवा कहलाता था। किसी पेशवा को पदच्युत कर नया पेशवा नियुक्त करना राजा के अधिकार में था। कहने का मतलब यह है कि मराठा राज्य का स्वामी शिवाजी का वंशज राजा था। पेशवा का पद सदैव राजा से नीचे रहा। वह मराठा राज्य का सर्वश्रेष्ठ कारबारी व प्रतिनिधि रूप में शासक था। (देखो म0 का उ0 और पतन पृष्ठ 293, 369, 425, 438 और 442) इसलिए पूना में दक्षिणी ब्राह्मण के राजा होने की बात सत्य नहीं है। फिर देखिये, जिस बाजीराव पेशवा को अंग्रेजों ने हराकर सन् 1818 ई0 में बिठूर में रखा था और जिसे उक्त राय बहादुर तुलसी साहब का छोटा भाई बतलाते हैं, वह रघुनाथ राव वा राघोवा का बड़ा औरस पुत्र था। राघोवा के तीन पुत्र थे। बाजीराव द्वितीय, चिमणाजी अप्पा औरस थे और अमृत राव दत्तक था। (देखो म0 का उ0 और पतन पृष्ठ 381, 382 और 408) चिमणाजी अप्पा अपने पिता के मरने के बाद जन्मा था और ज्ञात होता है कि बाजीराव के जन्म के प्रथम ही राघोवा ने अमृतराव को अपना दत्तक पुत्र बनाया होगा। नारायण राव पेशवा का औरस पुत्र सवाई माधव राव पेशवा पुत्रहीन था। वह सन् 1795 ई0 में मर गया। इसलिए मरते समय उसने अपनी यह इच्छा प्रकट की कि मेरे बाद रघुनाथ के लड़के बाजीराव को पेशवाई दी जाय। (म0 का उ0 और पतन पृष्ठ 404) इसलिए कुछ कारबारी उसको, पर दूसरे कारबारी चिमणाजी अप्पा को पेशवा बनाना चाहते थे। पहले तो सितारा* से चिमणाजी अप्पा के नाम पेशवाई की पोशाक प्राप्त की गई। पर कुछ झंझट के बाद बाजीराव ही पेशवा बनाया गया। म0 का उ0 और पतन पृष्ठ 406 और 407) कुछ दिनों के बाद बाजीराव का दत्तक भाई अमृतराव पेशवा बनाया गया; परन्तु अंग्रेजों की मदद से बाजीराव ही फिर से पेशवा बना दिया गया। (म0 का उ0 और पतन पृष्ठ 412, 413) बाजीराव के पिता राघो (रघुनाथ) सन् 1783 ई0 में मरा। (म0 का उ0 और पतन पृष्ठ 381) श्याम राव नाम से उसका कोई और चौथा पुत्र था, इसका पता इतिहासों में नहीं है। इसलिए अंग्रेजों के द्वारा बिठूर में रखे गए बाजीराव पेशवा का कोई और बड़ा भाई श्यामराव नाम से था, यह बात झूठ है। अब मैं बतलाता हूँ कि उक्त बाजीराव का पिता राघोवा कौन और कैसा पुरुष था? वह बालाजी बाजीराव पेशवा का छोटा भाई और पेशवा बाजीराव प्रथम का पुत्र था। (म0 का उ0 और पतन पृष्ठ 278) पेशवा का बड़ा पुत्र ही हकदार पेशवा माना जाता था। रघुनाथ (राघोवा) पेशवा का बड़ा बेटा नहीं था। इसी कारण अपने बाप के मरने के बाद वह पेशवा नहीं बनाया गया था। इसके बड़े भाई पेशवा का बड़ा पुत्र अर्थात् इसका बड़ा भतीजा विश्वास राव पानीपत की तीसरी लड़ाई में मारा गया था। इसलिए जब इसका बड़ा भाई (पेशवा बालाजी बाजीराव) मरा, तब कथित पेशवा का दूसरा पुत्र यानी इसका दूसरा भतीजा माधव राव पेशवा बना। पर यह (राघोवा) स्वयं पेशवा बनना चाहता था। इसलिए इसने माधव राव पेशवा को कई बार सताया, पर वह उससे (माधव राव से) पार न पा सका। (म0 का उ0 और पतन पृष्ठ 351, 352)
 सन् 1772 ई0 में माधव राव पेशवा अपने से छोटे तीसरे भाई नारायण राव को अपना उत्तराधिकारी बनाकर बीमारी से मरा। नारायण राव पेशवा को राघोवा ने षड्यंत्र करके अपने सामने (जब कि नारायण राव राघोवा की देह से लिपटकर अर्थात् उसका शरणागत होकर अपना प्राण बचाना चाहता था) मरवा डाला और इसी वर्ष कुछ दिनों के लिए वह पेशवा कहलाया। पर शीघ्र ही वह पदच्युत किया गया। नारायण राव पेशवा के नवजात पुत्र को चालीस ही दिनों की अवस्था में कारबोरियों ने पेशवा पद देकर कारबार चलाना आरम्भ किया। (म0 का उ0 और पतन पृष्ठ 364 से 370 तक) राघोवा भागकर अंग्रेजों की शरण में गया, तथापि वह फिर पेशवा नहीं बन सका। ‘मराठों के उत्थान और पतन’ में लिखा है कि खुद पेशवा के घराने का राघोवा राज्य-लोभ से अन्धा होकर अंग्रेजों का आश्रित बना। उसने स्वजनों से द्रोह करके अंग्रेजों की सहायता से पेशवाई पाने की आशा की। तब कारबारियों ने देखा कि राज्य में शान्ति रखना आवश्यक है, इसलिए उन्होंने अंग्रेजों की अन्याय पूर्ण माँगे भी स्वीकार की। पर राघोवा रूपी शनिश्चर जबतक था; तबतक शान्ति की आशा व्यर्थ रही। पृ0 373, फिर पृ0 382 में। सन् 1783 ई0 के 11 दिसम्बर को राघोवा की मृत्यु हुई। इस प्रकार राघोवा रूपी ग्रह ने करीब 23 वर्ष तक मराठा राज्य को संकट में डाला और उसे बहुत अधिक नुकसान पहुँचाया। राघोवा सम्बन्धी उपर्युक्त बातों को विचारने से राय बहादुर बाबू बालेश्वर प्रसाद साहब लिखित श्याम राव तो आकाश कुसुमवत् व्यत्तिफ़ सिद्ध हुआ और बाजीराव द्वितीय का पिता राघोवा जिसको (राय बहादुर साहब) तुलसी साहब अर्थात् श्याम राव का पिता बतलाते हैं, बड़ा भक्त कहाँ तक होगा कि मराठा इतिहास के अनुसार वह बड़ा स्वार्थी सिद्ध हुआ। और जब उसके बड़े बेटे ने राज्य नहीं लिया, तब विवश होकर अपने छोटे बेटे बाजीराव को देकर आप राज्य त्यागी हुआ। ये बातें भी सब प्रकार से झूठी ठहर गईं। राघोवा के मरने के बारह वर्ष बाद सवाई माधव राव पेशवा मरा, तब राघोवा का पुत्र बाजीराव कारागार से मुक्त करके पेशवा बनाया गया था। (म0 का उ0 और पतन पृष्ठ 405) इन सब बातों का सारांश यह है कि रायबहादुर बाबू बालेश्वर प्रसाद साहब ने जिस वंश का तुलसी साहब को बतलाया है, उस वंश के वह थे, यह बात अणुमात्र भी सत्य नहीं है।

भूमिका-17

अब तुलसी साहब के बारे में एक दूसरी दन्त कथा-कुछ थोड़े-से लोगों को यह मालूम है कि वह सदाशिव राव भाऊ थे, जो पानीपत की तीसरी लड़ाई में मुसलमानों से लड़े थे; परन्तु लड़ाई में हार होती देख वह लड़ाई से भागे और संन्यासी बनकर हाथरस में रहे और तुलसी साहब कहलाए। यह कथा भी पहिली कथा की तरह पूर्ण असत्य है; क्योंकि इतिहास पूर्ण रूप से बतलाता है कि सदाशिव राव भाऊ पानीपत की तीसरी लड़ाई में मारा गया थाऽ। भागलपुर महल्ला हसनगंज निवासी श्री बाबू तिलकधारी मोदी साहब पुराने सत्संगी महोदयजी के सुपुत्र श्री बाबू नरसिंह प्रसाद मोदी साहब, एम0 एससी0 (M.Sc.) बी0 एन0 (B.N.) कॉलेज पटना के इतिहास वेत्ता प्रोफेसर श्री बाबू सतीशचन्द्र मिश्र महानुभाव महोदयजी से अन्वेषण कराकर ता0 18-8-1934 के एक पत्र में लिखते हैं कि ‘सदाशिवराव भाऊ पानीपत की लड़ाई में ही मारा गया।’ जान पड़ता है कि तुलसी साहब की जीवनी की यथार्थ कथा प्रकट नहीं की गई है और उनको बहुत बड़े घराने का बतलाकर वैसे ही मशहूर किया गया है। जैसे घट रामायण को गो0 तुलसीदासजी कृत बतलाकर झूठ ही मशहूर किया गया है।

भूमिका-18

‘मराठों का उत्थान और पतन’ नामी पुस्तक ‘श्री चौधरी पुस्तकालय’ स्थान जोतराम राय जिला पूर्णियाँ से मिली। इस पुस्तक से मुझे बड़ी सहायता मिली। मैं सर्वाधार सर्वेश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि उनकी असीम कृपा से पुस्तकालय की उन्नति हो। पुस्तकालय के संस्थापक, स्थानीय श्रीमान् बाबू गेंदालाल चौधरी साहब जमीन्दार के सुपुत्र श्रीमान् बाबू लक्ष्मी प्रसाद चौधरी साहब को तथा पुस्तकालय के सहायक महाशयों को पुस्तकालय स्थापन के निमित्त मैं अनेकानेक धन्यवाद देता हूँ तथा इसके अतिरिक्त अन्यान्य महाशयों और संस्थाओं से भी जो मुझे इस कार्य में सहायता मिली है, उन्हें भी अनेकानेक धन्यवाद देता हूँ।


ता0 31-10-1936 ई0
सत्संग सेवक
मेँहीँ



पाद टिप्पणी : -

* शब्द गुरु ग्रंथ साहब, गुरु नानक की प्राण संगली और सूर सागर में नहीं हैं। इन शब्दों को घट रामायण में उस स्थान पर देखना चाहिए, जहाँ से ऊपर लिखित चौपाई और दोहे उपस्थित किए गए हैं।
पानीपत की अन्तिम लड़ाई का व्योरा काशी राजा पंडित ने ‘पानीपत की अन्तिम लड़ाई’ नामी पुस्तक में फारसी में लिखा था, इसका उल्था अंग्रेजी में लेफ्टीनेण्ट कर्नल जेम्स ब्राउन (दानापुर) ने सन् 1791 ई0 में की; जो इण्डियन एडुकेशनल सर्विस के एच0 जी0 रालिंसन (H.G. Rawlinson) द्वारा सम्पादित होकर सन् 1926 ई0 छपा। इस पुस्तक को मैंने टी0 एन0 बी0 कॉलेज, भागलपुर के पुस्तकालय में पढ़ा। इसमें सदाशिव राव भाऊ के मारे जाने का पूरा व्योरा काशी राजा पंडित ने जो लड़ाई में मौजूद था, लिखा है। उक्त पुस्तक के 46 पृष्ठ से 50 तक पढ़कर देखें।